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ग्राह्य-ग्राहक भाव है। इसलिए इन्द्रिया ग्राहक है और विपय उनके द्वारा गृहीत होते है । इन्द्रिय और विषय मे ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध है । वह साधना का विषय नही है किन्तु एक मनुष्य दृश्य को देखता है और उसके प्रति उसके मन मे राग या द्वेप की ऊर्मि उठती है, यह स्थिति साधना की परिधि मे आती है । इन्द्रियो का प्रयोग करना और उसमे राग या द्वेष की ऊर्मियो को उठने न देना, इसी का नाम है साधना । यह तभी सम्भव हो सकता है जब मनुष्य को शुद्ध चैतन्य की भूमिका का अनुभव प्राप्त हो ।
जानने और राग या द्वेप की ऊर्मि उत्पन्न होने मे निश्चित सम्बन्ध नही है । किन्तु जहा साधना नही होती, चैतन्य की केवल चैतन्य के रूप मे अनुभूति या स्वीकृति नही होती, वहा ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध अनुरागी और प्रेम या द्वेप्टा और द्वेष्य के रूप मे बदल जाता है। ज्ञान के उत्तरकाल में होने वाले राग या द्वेष को निर्चीर्य करना ही साधना का उद्देश्य है।
क्या यह सभव है, कोई व्यक्ति सुस्वादु पदार्थ खाए और उसके मन मे राग उत्पन्न न हो ? क्या यह सभव है, कोई आदमी वासी अन्न खाए और उसके मन मे ग्लानि या द्वेष उत्पन्न न हो ? साधारण आदमी के लिए यह सभव नही है । यह असंभव नही है किन्तु सभव उसी के लिए है जिसने ऐसी स्थिति के निर्माण के लिए प्रयत्न किया है ।
जिस व्यक्ति के मन मे इन्द्रिय-विपयो के प्रति आकर्षण है, वह उन्हे प्राप्त कर राग या द्वेप से मुक्त नही रह सकता । जिसके आकर्षण का प्रवाह बदल जाता है, विपयो के प्रति उसका आकर्षण समाप्त हो जाता है । यह वह स्थिति है जिसके लिए मनुष्य साधना के पथ पर चलता है ।
इन्द्रियो के साथ वृत्तियो का सम्वन्ध नही होता तव तक इन्द्रिय और विपय मे ज्ञाता और ज्ञेय का सम्वन्ध होता है । पानी अपने आप मे स्वच्छ है । उसमे गन्दगी आ मिलती है तव वह मैला हो जाता है । इन्द्रिय और मन भी अपने आप मे स्वच्छ है । उनमे वृत्तियो की गन्दगी आ जाती है तब वे मलिन वन जाते है। हम तब तक इन्द्रिय और मन की गन्दगी का शोधन या समापन नही कर सकते, जव तक वृत्तियों का शोधन या समापन
६ / मनोनुशासनम्