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साधक चलते समय पांचों प्रकार का स्वाध्याय न करे- न पढाए, न प्रश्न पूछे, न पुनरावर्तन करें, न अर्थ का अनुचिन्तन करे और न धर्म - चर्चा करे । मन को पूरा खाली रखे। साधक चलने वाला न रहे। किन्तु चलना वन जाए, तन्मूर्ति (मूर्तिमान् गति) हो जाए । उसका ध्यान चलने मे ही केन्द्रित रहे, चेतना गति का पूरा साथ दे। यह गमनयोग है । '
शरीर और वाणी की प्रत्येक क्रिया भाव क्रिया वन जाती है, जव मन की क्रिया उसके साथ होती है, चेतना उसमें व्याप्त होती है।
भाव - क्रिया का सूत्र है - चित्त और मन क्रियमाण क्रियामय हो जाए, इन्द्रिया उस क्रिया के प्रति समर्पित हो, हृदय उसकी भावना से भावित हो, मन उसके अतिरिक्त किसी अन्य विषय मे न जाए, इस स्थिति मे क्रिया भाव-क्रिया बनती है । ३
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५. समता
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आत्मा सूक्ष्म है, अतीन्द्रिय है इसलिए वह परोक्ष है। चैतन्य उसका गुण है ? उसका कार्य है- जानना और देखना । मन और शरीर के माध्यम से जानने और देखने की क्रिया होती है, इसलिए चैतन्य हमारे प्रत्यक्ष है हम जानते है, देखते है, तव चैतन्य की क्रिया होती है । समग्र साधना का यही उद्देश्य है कि हम चैतन्य की स्वाभाविक क्रिया करे । केवल जाने और केवल देखे । इस स्थिति में अवाध आनन्द और अप्रतिहत शक्ति की धारा प्रवाहित रहती है, किन्तु मोह के द्वारा हमारा दर्शन निरुद्ध और ज्ञान आवृत रहता है, इसलिए हम केवल जानने और केवल देखने की स्थिति में नही रहते । हम प्राय सवेदन की स्थिति में होते है । केवल जानना ज्ञान है
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उत्तरज्झयणाणि, २४/८
इंदियये विवज्जित्ता, सज्झाय चेव पच्हा । तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे, उवउत्ते इरिय रिए ||
२ कायोत्सर्ग शतक, गाथा ३७
मणसहिएण उकायण, कुणड वायाइ भासई ज च । एव च भावकरण, मणरहिअ दव्वकरण तु ॥
३ अणुओगद्दाराड, सूत्र २७
तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तज्झवसिए तत्तिव्वज्झवसाणे तदट्ठोवउत्ते तदप्पियकरणे तव्भावणाभाविए अण्णत्य कत्थई मण अकरेमाणे ।
मनोनुशासनम् / १८३