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अनुशीलन किया और उनसे लाभ भी उठाया, किन्तु उनके शिविरकालीन अभ्यास में सम्मिलित होने का अवसर नही मिला । ध्यान का रहस्य सिद्धान्त से नही समझा जा सकता, वह अभ्यास से समझा जा सकता है ।
वि. स. २०३२ जयपुर चातुर्मास में जैन परम्परागत ध्यान का अभ्यास-क्रम निश्चित करने का संकल्प हुआ । हम लोग आचार्यश्री के उपपात मे बैठे और सकल्पपूर्ति का उपक्रम शुरू हुआ। हमने ध्यान की इस अभ्यास- विधि का नामकरण 'प्रेक्षा- ध्यान' किया । इसकी पाच भूमिकाए निर्धारित की गयी । यह 'प्रेक्षा ध्यान पद्धति के विकास का संक्षिप्त इतिहास
है ।
प्रेक्षा
प्रेक्षा शब्द ईक्ष् धातु से बना है। इसका अर्थ है - देखना । प्र + ईक्षा = प्रेक्षा, इसका अर्थ है - गहराई मे उतरकर देखना । विपश्यना का भी यही अर्थ है। जैन साहित्य मे प्रेक्षा और विपश्यना - ये दोनो शब्द प्रयुक्त है । प्रेक्षा ध्यान और विपश्यना ध्यान - ये दोनो शब्द इस ध्यान-पद्धति के लिए प्रयुक्त किए जा सकते थे, किन्तु 'विपश्यना ध्यान' इस नाम से बौद्धो की ध्यान-पद्धति प्रचलित है । इसलिए 'प्रेक्षा ध्यान' इस नाम का चुनाव किया गया दशवैकालिक सूत्र मे कहा गया है-सपिक्खए अप्पगमप्पएण’–‘आत्मा के द्वारा आत्मा की सप्रेक्षा करो, मन के द्वारा सूक्ष्म मन को देखो, स्थूल चेतना के द्वारा सूक्ष्म चेतना को देखो । 'देखना ' ध्यान का मूल तत्त्व है । इसीलिए इस ध्यान -पद्धति का नाम 'प्रेक्षा- ध्यान' रखा गया है।
जानना और देखना चेतना का लक्षण है । आवृत चेतना मे जानने और देखने की क्षमता क्षीण हो जाती है । उस क्षमता को विकसित करने का सूत्र है - जानो और देखो । भगवान् महावीर ने साधना के जो सूत्र दिए है, उनमे 'जानो और देखो' यही मुख्य है । 'चिन्तन, विचार या पर्यालोचन करो' - यह वहुत गौण और बहुत प्रारम्भिक है । यह साधना के क्षेत्र मे बहुत आगे नही ले जाता ।
भगवान् महावीर ने बार-बार कहा - जानो और देखो । आचाराग सूत्र इसका साक्ष्य है। महावीर कहते है - 'हे आर्य । तू जन्म और वृद्धि के
मनोनुशासनम् / १७१