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२२. कर्म - निर्जरणहेतु पौरुषं तपः । २३ संविभागकरणं त्यागः ॥ २४. स्वदेहे निःसंगता आकिंचन्यम् ।। २५. ब्रह्मचर्यम् ॥
१. हिसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह - इनका सर्वथा त्यागने का नाम महाव्रत है । सर्वथा त्यागने का अर्थ है-मनसा, वाचा, कर्मणा हिंसा आदि स्वय न करना, दूसरो से न कराना और करते हुए का अनुमोदन न करना ।
२. प्राणी मात्र के प्रति सयम-अपनी असत् प्रवृत्तियो की रुकावट रखना, उन्हे कष्ट न पहुचाना तथा उनके प्रति मैत्री रखना अहिसा है।
३. शरीर, वाणी और मन की ऋजुता तथा अविसवादित्व (कथनी और करनी की एकरूपता) को सत्य कहा जाता है ।
४. दूसरों के स्व का हरण न करने को अस्तेय कहा जाता है । ५. जननेन्द्रिय, इन्द्रिय-समूह और मन की शान्ति को ब्रह्मचर्य कहा जाता है ।
६.
वा (आत्मा से अतिरिक्त वस्तुओ ) मे मन का सम्बन्ध न करने को अपरिग्रह कहा जाता है ।
योग - अभ्यासी को भोजन-पान आलोक मे ( सूर्य के रहते हुए ही करना चाहिए |
७.
८.
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उसे भूमि को देखते हुए चलना चाहिए ।
स्थान को देख, उसे साफ कर उपकरणो को उठाना और रखना चाहिए।
१०. उसे क्रोध, लोभ, भय और हास्य कुतूहल का वर्जन करना चाहिए और सोच-समझकर बोलना चाहिए।
११. रहने के स्थान की उसके स्वामी की अनुज्ञा ले, उसका सम्यक् पालन करना चाहिए ।
१२. ब्रह्मचर्य का घात करने वाले संसर्ग का वर्जन करना चाहिए। वासना को उभारने वाले व्यक्तियो के साथ नही रहना
१. देखे . ६/५
मनोनुशासनम् / १३३