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पर पहुंच जाते है कि जो अप्रिय लग रहा है, कष्ट हो रहा है, वह सव दैहिक संस्कार के कारण हो रहा है। चेतना के धरातल पर कोई अप्रिय नहीं है, कोई कष्ट नहीं है। यह अनुभूति पुष्ट होकर चित्त की चचलता पैदा करने वाली सभी बाधाओ को विलीन कर देती है और चित्त समाहित हो जाता है।
३३. कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यादात्मपरिणामो लेश्या॥ ३४ कृष्ण-नील-कापोत तेजः पद्म-शुक्लाः॥ ३३ कृष्ण, नील आदि पुद्गल द्रव्यो के निमित्त से जो आत्म-परिणाम होता
है, उसे लेश्या कहा जाता है। ३४ लेश्या के छह प्रकार है ।
१ कृष्ण ४. तेजस् २ नील ५. पद्म ३. कापोत ६. शुक्ल
लेश्या मनुष्य का शरीर पौद्गलिक है। उसके इन्द्रिय और सहायक मन भी पौद्गलिक है। उसकी सारी प्रवृत्तियो में पुद्गल का बहुत वडा योग रहता है। पुद्गल के चार लक्षण है-वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श। इन चारो मे पहला वर्ण-रग है। वर्ण के पांच प्रकार है-काला, पीला, नीला, लाल और सफेट। इनके मिश्रण से अनेक रग उत्पन्न होते है।
आधुनिक वैज्ञानिक रंग के सात प्रकार मानते है-लाल, हरा, पीला, आसमानी, गहरा नीला, काला और हल्का नीला।
उनके अनुसार सफेट रग मौलिक नही है। वह सात रगो के एकीकरण से बनता है। -
रगों का प्राणी-जीवन के साथ वहुत गहरा सम्वन्ध है। ये हमारे शरीर तथा मानसिक विचारो को भी प्रभावित करते है। लेश्या के सिद्धात द्वारा इसी प्रभाव की व्याख्या की गई है।
वैज्ञानिक परीक्षणो के द्वारा रगो की प्रकृति पर काफी प्रकाश डाला गया है। देखिए यंत्र
मनोनुशासनम् । ११७