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चित्त की छठी भूमिका निरुद्ध है। इसे शुक्लध्यान कहा जा सकता है। शुक्ल ध्यान को उत्तम समाधि, धर्म्यध्यान को मध्यम समाधि और धारणा को प्राथमिक समाधि कहा जा सकता है। धर्म्यध्यान की एकाग्रता चिरस्थायी होती है इसलिए उससे मन समाहित हो जाता है, वशीभूत हो जाता है। उसे बाधाए परास्त नही कर सकती। शुक्लध्यान मे चित्त का चिरस्थायी निरोध हो जाता है। उससे वृत्तिया क्षीण होती है। धारणा मे चित्त संतुलित होता है, ध्यान में समाहित और समाधि में केवल चैतन्य का अनुभव शेष रहता है ।
समाधि के पाच प्रकार अभ्यास की दृष्टि से किए गए है । रागात्मक और द्वेपात्मक विकल्प से शून्य चित्त की अवस्था में समाधि उत्पन्न होती है । इस दृष्टि से समाधि का कोई भेद नही होता किन्तु वह विकल्प-शून्य अवस्था में अनेक अभ्यासों और प्रयोगी के द्वारा प्राप्त की जा सकती है । इसलिए उसे कई भागों मे विभक्त भी किया जा सकता है ।
समाधि का एक प्रयोग है समत्व । लाभ-अलाभ, सुख-दुख आदि द्वन्द्वो मे सम (उदासीन या तटस्थ रहने का अभ्यास करते-करते राग और द्वेप के विकल्प शान्त हो जाते है - चित्त समाहित हो जाता है ।
चित्त की असमाधि का हेतु है-अभिमान । मनुष्य जितना परिग्रही होता है, उतना ही अभिमानी होता है । परिग्रह का अर्थ है - मूर्च्छा, आसक्ति । जो वैभव, सत्ता आदि पदार्थो मे मूर्च्छित होता है और यह मानता है- मेरे पास वैभव है, अधिकार है, मेरे पास यह है, वह है । ऐसा मानने वाला अभिमान के विकल्प से भरा रहता है । समाधि चाहने वाला परिग्रह को छोड़ता है - मूर्च्छा और आसक्ति का परित्याग करता है । फिर वह इस भावना का अभ्यास करता है कि मेरा कुछ भी नही है । इस अभ्यास से उसके अभिमान विकल्प का विलय हो जाता है । उसे चित्त-समाधि प्राप्त हो जाती है।
जिससे चित्त चचल होता है, वह ज्ञान समाधि का हेतु नही होता । समाधि चित्त की स्थिरता में ही निप्पन्न होती है। विकल्प और अशान्ति दोनो साथ -साथ जन्म लेते है । जैसे-जैसे विकल्प वढते जाते है, वैसे-वैसे अशात बढ़ती जाती है । विकल्प को क्षीण करने का पहला उपाय है - चित्त की एकाग्रता । जैसे-जैसे अन्तरात्मा का वोध जागृत होता है, वैसे-वैसे
मनोनुशासनम् / ११५