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________________ विचार-शून्यता ध्यान की वास्तविक स्थिति है, इसमें कोई सन्देह नही । सालम्वन ध्यान मे ध्याता और ध्येय भिन्न होते है, जबकि निगलम्वन ध्यान मे ध्याता और ध्येय के बीच में कोई भेद नहीं होता। सालम्बन ध्यान मे चित्त वाह्य विषयो पर स्थित होता है जबकि निगलम्वन ध्यान में वह आत्मगत हो जाता है-जिस चैतन्य केन्द्र से वह प्रवाहित होता है, उसी मे जाकर विलीन हो जाता है । निरालम्बन ध्यान से आत्मा की आवृत और सुषुप्त शक्तिया जितनी जागृत होती है, उतनी सालम्वन ध्यान से नहीं होती। सालम्वन ध्यान का प्रभाव मुख्य रूप से नाडी-सस्थान और चित्त पर होता है । निरालम्वन ध्यान का मुख्य प्रभाव चैतन्य केन्द्र पर होता है । प्रश्न केवल क्षमता का है। यदि किसी साधक में निरालम्वन ध्यान की क्षमता सहज हो तो उसे सालम्वन ध्यान की अपेक्षा नहीं होगी किन्तु जो साधक प्रारम्भ में निरालम्वन ध्यान न कर सके, उसके लिए इस अभ्यास का महत्त्व है कि वह सालम्वन ध्यान के द्वारा निगलम्बन ध्यान की योग्यता प्राप्त करे । निरालम्वन ध्यान की कुछ पद्धतिया हे। उन्हें जान लेने पर उसका अभ्यास सहज हो जाता है। उनका पहला अंग है - प्रयत्न की शिथिलता । सालम्वन ध्यान मे जैसे शरीर, वाणी और श्वास का प्रयत्न शिथिल किया जाता है, उसी प्रकार निरालम्वन ध्यान मे मन का प्रयत्न भी शिथिल कर दिया जाता है । निरालम्वन ध्यान वस्तुत अप्रयत्न की स्थिति है 1 दूसरा अग - निरभ्र आकाश की ओर टकटकी लगाकर देखते जाइए । थोडे समय में चित्त विचार-शून्य हो जाएगा । तीसरा अग - केवल कुम्भक का अभ्यास कीजिए । मन विचार - शून्य हो जाएगा । चौथा अग- मानसिक विचारो को समेटकर चित्त को हृदय चक्र की ओर ले जाइए। फिर गहराई में उतरने का अनुभव कीजिए। ऐसा करते ही चित्त विचार - शून्य हो जाएगा ! पाचवा अग-आत्मा या चैतन्य केन्द्र की धारणा को दृढ कर उसके सान्निध्य का अनुभव कीजिए। वह सहज शान्त और निर्विचार हो जाएगा। ११२ / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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