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दृष्टि - परिष्कार के लिए आचार्यवर ने 'भिक्षुन्यायकर्णिका' की रचना की । न्यायशास्त्र के विद्यार्थियो के लिए वह बहुत ही लाभप्रद हुई ।
व्यवहार - परिष्कार के लिए आचार्यश्री ने 'पंचसूत्रम्' का प्रणयन किया है। वैचारिक परिपक्वता और अनुशासित जीवन-पद्धति की उपलब्धि के लिए उसका अपना विशिष्ट मूल्य है ।
आज सर्वाधिक अपेक्षा मन को अनुशासित करने की है। उसकी पूर्ति के लिए आचार्यश्री ने 'मुनोनुशासनम्' का प्रणयन किया है। यह आकार मे लघु है पर प्रकार मे गुरु | इसमे योगशास्त्र की सर्वसाधारण द्वारा अग्राह्य सूक्ष्मता नही है । किन्तु जो है, वह अनुभवयोग्य और बहुजनसाध्य है । इस मानसिक शिथिलता के युग मे मन को प्रवल बनाने की साधन-सामग्री प्रस्तुत कर आचार्यश्री ने मानव जाति को वहुत ही उपकृत किया है। हमारी आशा है कि युग-युग तक हमे इस महान् ज्योति से ज्योति की रेखाए प्राप्त हो ।
'मनोनुशासनम्' का सक्षिप्त अनुवाद आचार्यवर के धवल समारोह के पुण्य पर्व (वि. स. २०१८) पर प्रकाशित हो चुका था किन्तु उससे पाठक की दृष्टि स्पष्ट नही हो रही थी । अनेक लोगो की यह भावना थी कि इसे कुछ विस्तार से लिखा जाए। इस अपेक्षा को मै स्वयं भी अनुभव करता था । आचार्यश्री भी इस ओर इंगित कर चुके थे किन्तु प्राप्त कार्यो की पूर्णता न होने तक यह कार्य निप्पन्न नही हो सका । आचार्यश्री ने इस कार्य के लिए समय की विशेष व्यवस्था की और यह कार्य सम्पन्न हो गया ।
इस कार्य मे मुनि गुलाबचन्द्र 'निर्मोही' मेरे सहयोगी रहे है । मै लिखाता गया और वे लिखते गए। मै वोला हू, इतना कार्य मेरा है, शेप सव कार्य उन्होने किया है। यदि ऐसा नही होता तो अन्य कार्यो की व्यस्तता मे इसका निर्माण संभव नहीं था ।
मनोनुशासनम् की रचना के पश्चात् प्रेक्षाध्यान की पद्धति का निर्धारण किया गया। उसके प्रयोग चल रहे है । किन्तु ध्यान का विशिष्ट विकास चाहने वालो के लिए प्रस्तुत ग्रन्थ और इसके परिशिष्ट अत्यधिक मननीय और अनुशीलनीय है।