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ध्यान के प्रकार
ध्यान शब्द की कल्पना करते ही हमारे सामने दो स्थितियां उभर
आती है :
१. मन की एकाग्रता । २ मन का निरोध ।
एकाग्रता निर्विषय नही होती। वह किसी वस्तु या अवस्था पर निर्भर होती है। एकाग्रता की तुलना उस बच्चे से की जा सकती है जो माता की अगुली के सहारे चलने का अभ्यास करता है । निरोध की तुलना उस किशोर से हो सकती है जो अपने पैरों के बल चलने लग जाता है । पहले कोई परिकल्पना की जाती है, फिर उस पर मन को स्थिर किया जाता है, यह एकाग्रता है । इसमें मन की स्थिरता लक्ष्य के सहारे होती है, इसलिए इस एकाग्रतात्मक धर्म को सालम्बन ध्यान कहा जाता है ।
मन का निरोध विपय-शून्यता की स्थिति मे होता है । जब मन खाली हो जाता है, उसके सामने कोई खाली विपय नहीं रहता तब वह अपने आप निरुद्ध हो जाता है । जब मन में कोई कल्पना नही होती तव उसके सामने कोई शब्द नहीं होता, कोई आकार नही होता । शब्द और रूप के अभाव में वह निरालम्वन हो जाता है और निरालम्बन होने का अर्थ है कि उसकी गतिशीलता समाप्त हो जाती है । यही निरालम्वन ध्यान है ।
ध्यान के आलम्बन असंख्य हो सकते है किन्तु ध्यान की लम्बी परम्परा मे साधक वर्ग ने कुछ विशेष अनुभव प्राप्त किये हैं । उनके आधार पर ध्यान के आलम्वनो का वर्गीकरण किया गया है । वह वर्गीकरण ध्यान के प्रकारो का निमित्त बना है ।
स्थूल व्यवहार की भाषा मे एकाग्रता को हम एक कोटि मे रख देते है किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से उसकी असख्य कोटिया है । एक व्यक्ति एक क्षण मे जितना एकाग्र होता है, दूसरे क्षण मे उससे अधिक या कम एकाग्र भी हो सकता है । एक आदमी जितना एकाग्र होता है, दूसरा उससे कम या अधिक भी हो सकता है। इस प्रकार काल-क्रम और व्यक्ति-भेद की दृष्टि से एकाग्रता की असख्य कोटिया हो जाती हैं । इनके आधार पर एकाग्रतात्मक ध्यान के असंख्य प्रकार हो जाते है । किन्तु इस सूक्ष्म पद्धति के आधार पर ध्यान की कोटियां निश्चित नही की गई है। उसकी चार कोटियां हैं
मनोनुशासनम् / १०१