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________________ करना स्वार्थ है, इस सत्य को अस्वीकृति नहीं दी जा सकती। किन्तु इस तथ्य पर भी आवरण नही डाला जा सकता कि सघमुक्त साधना करने का सम्बन्ध प्रयोजन से नही, पद्धति से है। एकान्त मे साधना करने वाले का प्रयोजन अपने लिए और दूसरो के लिए इन दोनो की समष्टि में व्याप्त है। वह केवल स्वार्थ ही नही है, किन्तु जैसे एक विद्यार्थी, कवि, लेखक या वैज्ञानिक को अपने कार्य के लिए शान्त-नीरव स्थान की अपेक्षा होती है, वैसे ही आत्मानुभूति की गहराई मे पैठने वाले साधक को एकान्त की अपेक्षा होती है। शान्त सरोवर मे कोई ढेला न फेके इस दृष्टि से उसे अकेला रहना आवश्यक होता है। प्रायोगिक काल मे अकेलेपन की उपयोगिता समझ मे आती है। सत्य उपलब्ध होने पर सघ या अकेलेपन का कोई भेद नही होता। उपधि और भक्तपान व्युत्सर्ग पदार्थो का सग्रह और उनका ममत्व-ये दोनो अन्तरानुभूति के विघ्न है। पदार्थ स्वत विघ्न नही है किन्तु उनका सग्रह लोभ के कारण होता है, इसलिए वह विघ्न हो जाता है। ममत्व के विना सग्रह होता ही नही और जहा ममत्व होता है वहा अन्तरानुभूति का स्थान बाह्यानुभूति ले लेती है। उस स्थिति मे साधक की चेतना मूर्छा से बोझिल बन जाती है। मूर्छा का विसर्जन अर्थात् सग्रह का विसर्जन। यह विसर्जन की प्रक्रिया आगे बढते-बढते पदार्थो के पूर्ण त्याग तक पहुच जाती है। भोजन के बिना शरीर का निर्वाह नही हो सकता, किन्तु इस प्रक्रिया मे उसका भी आशिक त्याग प्राप्त होता है और एक बिन्दु आने पर सदा के लिए भोजन का विसर्जन कर दिया जाता है। दैहिक ममत्व का विसर्जन करने के लिए ऐसा करना बहुत आवश्यक है। ___ममत्व-विसर्जन हो जाए, फिर सग्रह-विसर्जन की क्या आवश्यकता है ? इस चिन्तन का बाह्य जितना सुन्दर है, उतना अन्तस् यथार्थ नही है। ममत्व-विसर्जन की कसौटी असग्रह है। सग्रह है और ममत्व नही है, यह सामान्य स्थिति नही है। सग्रह नही होने पर ममत्व नही होता, यह व्याप्ति भी नही है। इन दोनो रेखाओ के मध्य मे जो देखा जा सकता है, वह इतना ही है कि ममत्व-विसर्जन के लिए सग्रह का विसर्जन किया ६० / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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