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________________ जैन समाजका हास क्यों ? २३ रिश्तेदारियां सब उसी जातिमें होती हैं, जिससे उन्हें पृथक कर दिया गया है अतः सब नवीन जाति-च्युत यही चाहते हैं कि हमारा रोटी-बेटी-व्यवहार सब जाति-सन्मानितोंमें ही हो, जातिच्युतोंसे व्यवहार करने में हेटी होगी । जाति वाले उनसे व्यवहार करना नहीं चाहते और वह जाति-व्युत, जाति सम्मानितोंके अलावा जातिच्युतोंसे व्यवहार नहीं करना चाहते । अतः इसी परेशानीमें वह व्याकुल हुए फिरते हैं। ___ कालेपानी और जोक्नपर्यन्त सज़ाकी अवधि तो २० वर्ष है; और अपराधी नेकचलनीका प्रमाण दे तो, १४ वर्ष में ही रिहाई पासकता है; किन्तु सामाजिक दण्डकी कोई अवधि नहीं । जिस तरह संसारके प्राणी अनन्त हैं उसी प्रकार हमारे समाजका यह दण्ड भी अनन्त है । पाप करने वाला प्राणी कोटानिकोट वर्षोंकी यातना सहकर वे नरकसे निकल कर मोक्ष जासकता है, किन्तु उसके वंशज उसके अपराधका दण्ड सदैव पाते रहेयही हमारे समाजका नियम है ! कुछ लोग कहा करते हैं कि जिस प्रकार उपदंश, उन्माद, मृगी, कुष्ट आदि रोग वंशानुक्रमिक चलते हैं, उसी प्रकार पाप का दण्ड चलता है। किन्तु उन्हें यह ध्यान रखना चाहिये कि रोग के साथ यदि पापका सम्बन्ध होता तो जिस पापके फल स्वरूप रावण नर्क में गया, उसीके अनुसार उसके माई-पुत्रोंको भी नरकमें जाना पड़ता, किन्तु ऐसा न होकर वह मोक्ष गये । उसके हिमायती बनकर पापका पक्ष लेकर लड़े, किन्तु फिर भी वह तप करके मोक्ष गये । यदि रोग और पापका एकसा सम्बन्ध होता तो पिता नरक यौर पुत्र स्वर्ग न जाता । रोगोंका रक्तसे सम्बन्ध है, जिसमें भी वह रक्त जितना पहुंचेगा, उसमें उसके रोगी'कीटाणु भी उतने
SR No.010296
Book TitleJain Samaj ka Rhas Kyo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1939
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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