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जैन-समाजका ह्रास क्यों?
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__ . किन्तु हमारे समाजका चलन ही कुछ और है । जिसने अपराध किया, वह मर कर अपने आगे के भवोंमें शुभकर्म करके चाहे महान् पदको प्राप्त क्यों न होगया हो, तो भी उसके वंशमें होने वाले हज़ारों वर्षों तक उसके वंशज उसी दण्डके भागी बने रहेंगे; जिन्हें न अपराधका पता है और न यही मालूम है कि किसने कब अपराध किया था ? और चाहे वे कितने ही सदाचारी धर्म-निष्ठ क्यों न रहें, फिर भी वे निम्न श्रेणीके ही समझे जाएँगे-बलासे उनके आचरण और त्यागकी तुलना उनसे । उच्च कहे जाने वालोंसे न हो सके, फिर भी वे अपराधीके वंशमें उत्पन्न : हुए हैं, इसलिये लाख उत्तम गुण होने पर भी जघन्य हैं । क्या स्त्रब !! । ___ जैन-समाजमें प्राचीन और नवीन दो तरह के ऐसे मनुष्य हैं, जो । जातिसे पृथक समझे जाते हैं । प्राचीन तो वे हैं जो दस्सा और विनैकवार आदि कहलाते हैं, और न जाने कितनी सदियोंसे न जाने किस अपराध के कारण जाति-च्युत चले आते हैं। नवीन वे हैं जो अपनी किसी भूल . या पंच-पटेलों की नाराज़गीके कारण जाति से पृथक होते रहते हैं ।
प्राचीन जातिच्युतोंके तो धीरे-धीरे समाज बन गये हैं, वह अपनी जातियोंमें रोटी-बेटी व्यवहार कर लेते हैं और उन्हें विशेष असुविधा प्राप्त नहीं होती; किन्तु . नवीन जातिच्युतीको बड़ी आपत्तियोंका सामना करना पड़ता है उनके तो गांवोंमें बमुश्किल कहीं-कहीं इकेले-दुकेले घर . होते हैं । उनसे पुश्तैनी जाति-च्युत तो रोटी-बेटी व्यवहार करते नहीं। . क्योंकि उनकी स्वयं जातियां बनी हुई हैं और वह भी रूदि के अनुसार दूसरी जातिसे रोटी-बेटी व्यवहार करना अधर्म समझते हैं। और नवीन जाति-च्युतोंकी कोई जाति इतनी शीघ बन नहीं सकती; उनकी पहली .