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६२ : जैनसाहित्यका इतिहास
१५. लेश्यापरिणाम, १६ साताराात, १७ दीर्घह्रस्व, १८ गवधारणीय, १९ पुद्गलत्व, २० निधत्त-अनिवत्त, २१ निकाचित-अनिकाचित, २२ कर्मस्थिति २३ पश्चिमरकन्ध, २४ अल्पबहुत्व ।
इन्ही चौवीरा अनुयोगद्वारोको छ खण्डोम उपसहृत किया गया है। पहले कृति और दूसरे वेदना अनुयोगद्वारका उपरांहार करके चौथा वेदनासण्ड निप्पन हुआ है। तीसरे स्पर्श, चीये कर्म और पांचवें प्रकृति और छठे वन्धन अनुयोगद्वारसे पांच वर्गणासण्ड निष्पन्न हुआ है । और छठे बन्धन अनुयोगके भेदप्रभेदोसे शेप चार खण्ड उपसंहृत हुए है।
प्रथम खण्ड 'जीवस्थानका अवतार बतलाते हुए वीरसेनस्यामीने रात्परपणाके द्वितीय सूनकी धवलाटीकामें विरतारसे यह बतलाया है कि जीवस्थानका अवतार चतुर्थ कर्मप्रकृतिप्राभृतके किरा अनुयोगद्वारके अन्तर्गत किन-किन भेदो-प्रभेदोसे हुआ। यह हम पीछे लिस आये है।
दूसरे खण्ड खुद्दावन्धके प्रथमसूत्रको धवलाम वीरसेनस्वामीने लिखा है'महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके कृति, वेदना आदि चौवीस अनुयोगद्वारोमै छ? बन्धन अनुयोगद्वारके अन्तर्गत चार अधिकार है-बन्ध, वन्धक, वन्धनीय और बधविधान । उनमेरो जो बन्धक नामका दूसरा अधिकार है वही यहां सूत्रके द्वारा सूचित किया गया है । तात्पर्य यह है कि महाकर्मप्रकृतिप्राभृतमे जो बन्धक वहे गये है उन्हीका यहाँ निर्देश है।'
इससे स्पष्ट है कि दूसरे खण्डका उद्धार महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके छठे अनुयोगद्वारके अवान्तर अधिकारोसे किया गया है ।
तीसरे खण्ड बन्धस्वामित्वविचयके प्रथमसूत्रकी धवलाटीकाम वीरसेनस्वामीने लिखा है-'कृति, वेदना आदि चौवीस अनुयोगद्वारोमे बन्धन नामक छठा अनुयोगद्वार है। उसके चार भेद है-बन्ध, वन्धक, , वन्धनीय और बन्धविधान । बन्धविधानके चार भेद है प्रकृतिवन्ध, स्थितिवन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेशवन्ध । प्रकृतिबन्धके दो भेद है-मूलप्रकृतिवन्ध और उत्तरप्रकृतिवन्ध ।
१ पट्ख०, पु०१, पृ० १२३-१३०।।
'जे ते वधगा णाम तेसिमिमो णिद्दे सो ॥१॥' टी०-'जे ते वधगा णाम' इति वयण वध. गाण पुज्वपसिद्धत्त सूचेदि । पुन्च कम्हि पसिद्ध वधगे सूचेदि ? महाकम्मपटिपाहुडम्मि । त जहा-महाकम्मपयडिपाहुडस्स कदिवेदणादिगेसु चदुवीसअणिओगद्दारेसु छट्ठस्स बधणेत्ति अणियोगद्दारस्स बधो बधगो वणिज्ज वधविहाणमिदि चत्तारि अहियारा । तेसु - वधगेत्ति विदियो अहियारो एदेण वयणेण सूचिदो।-पटख०, पु. ७, पृ० १-२ । ३ पटख०, पु०८, पृ० २ ।