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५२ : जैनसाहित्यका इतिहास
अपने-अपने श्रुतावतारमे इसी नागगे गन्यमा उरलेग लिया है। विन्तु, धवलाकारने काही गो 'उपगगग' नागगे एग ग्रन्या निर्दश नहीं लिया। धवला और जगधनलागे छ गण्डोग. नागोरी गा उनके अन्तर्गत अनुगागद्वारी नागोंगे ही उनका निर्देश मिलता है ।
यथा-'जुत्त गुहावंधम्हि भागलदादो एयस्चरम अवयण, एत्य गुण जीव. ट्ठाणम्हि ।'-पट्या, पु० ३, पृ० २५० ।
'एत्य गैरइयमिच्छाउट्ठीण जी रट्ठाणे परविदा ‘एदेण गुहावधेण राह विरोहादो ।-१० ७, पृ० २८६ ।
'वग्गणासुत्ते भणिद'- पु० १४, पृ० ३८५ । 'अथवा जहा वैयणाए परवणा नादातहा वि कायन्या,' पु०१४, पृ० ३५१ ।
'त कथ णव्वदे ? 'पचिदिए उवगामतो गन्गोवकातिएशु उवगादि गो राम्मुच्छिएसु' ति चूलियासुत्तायो ।-पु० ५, पृ० ११९ ।
जीवस्थान, सुद्दावन्ध, वेदना, वर्गणा ये गव पट्सण्डागमके अन्तर्गत सण्डीके नाम है । तया 'चूलिया' जीवट्ठाणका अन्तिम भाग है । उराका निर्देश भी 'जीवद्वाण' के नामरो न करके 'चूलिका' के नामसे किया है। एक ही ग्रन्यमे उनके अन्तर्गत सण्डोका उल्लेस सण्टके नामसे न करके मूलग्रन्यके नामसे करनेमे पाठकको कुछ भ्रम न हो, इसलिये ऐसा किया गया है, यह कहा जा सकता है, किन्तु जयधवलामे भी उनका उल्लेस सण्डोके नामोसे ही पाया जाता है । यथा
'खुद्दावधे जो आलावो मो काययो'।-का पा०, भा॰ २, पृ०:२। ण च जीवट्ठाणेण राह विरोहो'।- , , पृ० ३६१ ।
"खिप्पोग्गहादीणमत्यो जहा वग्गणासडे परविदो तहा एत्य वि परुविदव्यो।' क० पा०, भा० १, पृ० १४ ।
पखण्डागमके अन्तर्गत खण्डोका उल्लेख ग्रन्थान्तरोमे क्वचित् ही मिलता है, मगर वहाँ भी खण्डोके नामोसे ही मिलता है। यथा--अकलकदेवने अपने तत्त्वार्थवातिकमे 'जीवस्थान' का निर्देश किया है। और एक जगह 'आप' करके खुद्दावन्धका उल्लेख किया है । और एक जगह वर्गणाखण्डका उल्लेख किया है किन्तु पट्खण्डागम करके निर्देश नही किया। ___ इससे तो यही प्रमाणित होता है कि वैसे प्रत्येक खण्ड अपने-अपने स्वतत्र
१ 'आह चोदक -जीवस्थाने योगभन्न सप्तविधकाययोगस्वामिप्ररूपणाया'-पृ० १५३ । २ 'एव ह्याचे उक्तमन्तरविधाने-पृ० २४४ । ३. 'एव ह्युक्तमा वर्गणाया बन्धविधाने ।'--त० वा० ५।३७ ।