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कसायपाहुड ४१ जीव ही दर्शनमोहके उपशमनका प्रस्थापक होता है किन्तु निष्ठापक भजितव्य है । दर्शनमोहकी उपशान्त अवस्थामे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति ये तीनो उपशान्त रहते हैं । उपशमसम्यदृष्टि जीवके दर्शनमोहनीयकर्म अन्तर्मुहूर्त काल तक उपशान्त रहता है। इसके पश्चात् नियमसे उसके निथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतिमेंसे किसी एकका उदय होता है । सम्यक्त्वका प्रथम वार लाभ सर्वोपशम से होता है ।
सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट प्रवचनका तो नियमसे श्रद्धान करता | किन्तु अज्ञानवश सद्भूत अर्थको स्वय नही जानता हुआ गुरुके नियोगमे अद्भुत अर्थका भी श्रद्धान करता है ।'
इस प्रकार इस अधिकारमें सम्यक्त्वका कथन विस्तारसे किया है । इससे आगे दर्शनमोहक्षपणा अधिकारमें कहा है कि नियमसे कर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ और मनुष्यगतिमे वर्तमान जीव ही दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक होता है, किन्तु उसकी पूर्ति चारो गतिमें होती है । मिथ्यात्ववेदनीय कर्मके सम्यक्त्व प्रकृतिमे अपवर्तित होनेपर जीव दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक होता है । दर्शन मोहके क्षीण हो जानेपर तीन भवमें नियमसे मुक्त हो जाता है । मनुष्यगतिमें शायिक सम्यग्दृष्टि नियमसे संख्यात हजार होते है । शेष गतियोमे असख्यात होते हैं । उपगमसम्यक्त्वके पश्चात् क्षायिकसम्यक्त्व होने पर ही मुक्तिकी प्राप्ति होती हैं, क्योकि दर्शनमोहका क्षय किये बिना मुक्तिकी प्राप्ति सभव नही है |
आगे सयमा सयमलब्धि नामक अधिकारमें एक गाथासे कहा है - ' सयमा सयम - की लब्धि तथा चारित्रकी लब्धि, परिणामोकी वृद्धि और पूर्वबद्ध कर्मोकी उपशामना इस अधिकारमें वर्णन करने योग्य है । इतना कहकर ही यह अधिकार समाप्त कर दिया गया है । आगे चारित्रमोहको उपशमना नामक अधिकारमें प्रारम्भकी ५ गाथाए तो प्रश्नात्मक है । बादकी तीन गाथाओ में विपयसे सम्बद्ध बातोका विवेचन किया है । जैसे, यह प्रश्न किया गया है कि चारित्रमोहकी उपशमना करने वाले जीवका प्रतिपात कितने प्रकारका है तथा वह सर्वप्रथम किस कषायमें गिरता है ? उत्तरमे कहा हैं प्रतिपात दो प्रकारका है-एक भवक्षयसे अर्थात् आयु समाप्त हो जानेसे और दूसरा उपशमकालके समाप्त हो जानेसे । उपशमकालके समाप्त होनेसे जो प्रतिपात होता है वह सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें होता है अर्थात् ग्यारहवें गुणयानसे गिरकर दसवेमे आता है । किन्तु आयुक्षयसे जो प्रतिपात होता है वह स्थूल रागमें होता है । वह मरकर देव होता है ।
अन्तिम अधिकार चारित्रमोहक्षपणा है | दर्शनमोहका क्षय करनेके पश्चात् जीव चारित्रमोहका या तो उपशम करता है या क्षय करता है । यदि उपशम