SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 485
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरकालीन कर्म साहित्य · ४७७ ठीक बैठती है। अत वि० स० १५७२ या ई० सन् १५१५ टीका समाप्तिका काल जानना चाहिये। टीकाका परिचय इसमें तो सन्देह ही नही कि जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका एक महत्त्वपूर्ण टीका ग्रन्थ है । गोम्मटसारके गहन विषयोंको उसमें बहुत सरल रीतिसे स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया गया है। सैद्धान्तिक विषयोकी चर्चाके साथ ही साथ गोमटसारमें जो अलौकिक गणित-सख्यात, असख्यात, अनन्त, श्रेणि, जगत्प्रतर, धनलोक आदि राशियोका कथन है, उसे सहनानियोके द्वारा अकसदृष्टिके रूपमे स्पष्ट किया गया है । और अपने जानतेमें टीकाकारने किसी विषयको गूढरूपमें नही रहने दिया है। जीव विषयक और कर्मविषयक प्रत्येक चर्चित विषयका सैद्धान्तिक रूपमें सुन्दर विश्लेषण किया गया है। जिससे प्रतीत होता है कि टीकाकार श्री नेमिचन्द्राचार्यको जैन सिद्धान्तका गम्भीरज्ञान था। उनकी टीकामें प्रसङ्गवश चर्चित विषयोकी यदि तालिका बनाई जाये तो एक लम्बी सूची तैयार हो सकती है। ___ उनकी शैली स्पष्ट और सस्कृत परिमार्जित है । उसमें दुरूहता और सदिग्धता नही है। साथ ही साथ न अनावश्यक विस्तार है और न आवश्यक विस्तारका सकोच है। सक्षेपमें गोम्मटसार ग्रन्थके हृद्यके समझनेके लिये जिस ढगकी टीका आवश्यक हो सकती है, जी० प्रदीपिका तदनुरूप ही है। उसके देखनेसे टीकाकारके बहुश्रु तत्वका भी परिचय मिलता है। उसमें सस्कृत और प्राकृतके लगभग एक सौ पद्य उद्धृत है । जो समन्तभद्राचार्यकी आप्तमीमासा, विद्यानन्दकी आप्तपरीक्षा, सोमदेवके यशस्तिलक, नेमिचन्द्रके त्रिलोकसार और आशाधरके अनगार धर्मामत आदि ग्रन्थोसे लिये गये है । तथा टीकामें यतिवृषभ, भूतबली, भट्टाकलक, नेमिचन्द्र, माधवचन्द्र, अभयचन्द्र और केशववर्णी आदि ग्रन्थकारोका नामोल्लेख है । किन्तु यह टीका केशववर्णीकी कर्नाटवृत्तिके आधार रची गई है । अत दोनोका मिलान किये बिना यह कहना शक्य नही है कि उक्त विशेषताओंका श्रेय केवल नेमिचन्द्रको ही है, केशववर्णीको नही । सभव है केशववर्णीकी कर्नाटवृत्तिमें भी वे सव विशेषताएँ हो। फिर भी नेमिचन्द्रकी वृत्तिका जो रूप हमारे सामहे है वह एक प्रशसनीय टीकाके सर्वथा अनुरूप है । सुमतिकोर्तिको पञ्चसग्रह वृत्ति प्राकृत पचसग्रह पर एक वृत्ति सुमतिकीतिकी रची हुई है। इसकी एक प्रति देहलीके पचायती जैन मन्दिरमें वर्तमान है। यह प्रति सवत् १७११की
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy