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४७४ - जैनसाहित्यका इतिहास
नही दिया गया। दूसरे विशालकीतिके शिप्य विद्यानन्द स्वामी के विपयमें कहा जाता है कि ये मल्लिरायके द्वारा पूजे गये थे । और ये विद्यानन्द ई० सन् १५४१ में दिवगत हुए है । इममे भी मालूम होता है कि १६ वी शताब्दीके प्रारम्भमें एक मल्लिभृपाल था। हुमचका शिलालेस इस विपयको और भी अधिक स्पष्ट कर देता है। वह बतलाता है कि यह राजा जो विद्यानन्दके सम्पर्कमें था सालुव मल्लिराय कहलाता है, यह उल्लेख हमे मात्र परम्परागत किंवदन्तियोसे हटाकर ऐतिहासिक आधार पर ले आता है । सालुव नरेगोने कनारा जिलेके एक भाग पर राज्य किया है और वे जैनधर्मको मानते थे। मल्लिभूपाल मल्लिरायका सस्कृत किया हुआ रूप है। और मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं है कि नेमिचन्द्र सालुव मल्लिरायका उल्लेस कर रहे है । यद्यपि उन्होने उनके वशका उल्लेस नहीं किया है। १५३० ई० के लेखमें उल्लिसित होनेमे हम सालुव मल्लिरायको १६ वी शताब्दीके प्रथम चरणमें रस सकते है । और यह उसके विद्यानन्द तथा विजयकीर्ति विपया सम्पर्कके साथ भी अच्छी तरह सगत जान पडता है । इस तरह नेमिचन्द्र के सालुव मल्लिरायके समकालीन होनेसे हम स० जीव० प्रदीपिकाकी रचनाको ईसाकी १६ वी शताब्दीके प्रारम्भकी ठहरा सहते है।
श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमीने 'जिनचन्द्र ज्ञानभूपण और शुभचन्द्र' शीर्पक अपने लेखके टिप्पणीमे लिखा है कि २६ अगस्त १९१५के जैन मित्रमे गोम्मटसार टीकाकी प्रशस्ति प्रकाशित हुई थी। उसके अनुसार यह टीका वीरनिर्वाण सम्वत् २१७७ में समाप्त हुई । प्रेमीजीने उस प्रशस्तिका जो आशय दिया है उससे यही ज्ञात होता है कि वह प्रशस्ति वही है जो गोम्मटसारके कलकत्ता सस्करणके अन्तमें प्रकाशित हुई है। किन्तु उसमें उमका रचनाकाल नही दिया, जबकि जैनमित्रमें प्रकाशित प्रशस्तिमें रचनाकाल दिया हुआ है। किन्तु वह वीर निर्वाण सम्वत्के रुणमें है । प्रेमीजी ने लिखा है-'गोम्मटसारके कर्ताके मतसे २१७७में विक्रम संवत् (२१७७ - ६०५ = १५७२ + १३५) १७०७ पडता है अतएव उक्त नेमिचन्द्रके गुरु ज्ञानभूषण कोई दूसरे ही ज्ञानभूपण है जो सिद्धान्त सारके कर्तासे सौ सवा सौ वर्ष वाद हुए है।'
उसका उल्लेख करते हुए डॉ० उपाध्येने लिखा है यह समय (अर्थात् वि० सं० १७०७ या ईस्वी सन् १६५०) मल्लिभूपाल और नेमिचन्द्रको समकालीन नही ठहरा सकता । चूँ कि असली प्रशस्ति उद्धृत नही की गई है अत इस उल्लेखकी विशेषताओका निर्णय करना कठिन है। हर हालतमें ई० सन् १६५० जी० १ 'विशालकीर्ते ' श्रीविद्यानन्द स्वामीति शब्दत । अभवत्तनय साधुमल्लिरायनृपार्चित ॥'
-प्रश० स० [आरा], पृ० १२५ ।