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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य • ४७१ डा० उपाध्येके जिस लेख'का उल्लेख पहले किया गया है उस लेख में जीवतत्त्व प्रदीपिकाके कर्तृत्वके विपयमें फैले हुए इस भ्रमका निराकरण करते हुए डा० साहबने सुन्दर विचार प्रस्तुत किया है।
असलमें उक्त श्लोक जो इस भ्रम फैलानेका कारण बना, अशुद्ध है। श्री ऐलक पन्नालाल दि० जैन मरस्वती भवन वम्बईकी जीवतत्त्व प्रदीपिका सहित गोम्मटसारकी लिसित प्रतिमें उक्त श्लोक इस प्रकार पाया जाता है
"श्रित्वा कर्णाटिकी वृत्ति वणिश्रीकेशवै कृताम् ।
कृतेयमन्यथा किंचित्त द्विशोध्य बहुश्रुतै ॥' इसके साथ एक श्लोक और है जो इस प्रकार है
श्रीमत् केशवचन्द्रस्य कृतकर्णाटवृत्तित्त ।।
कृतेयमन्यथा किंचिच्चत्तच्छोध्य बहुश्रुत ॥' इन पद्योसे यह विल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि इन पद्योमें टीकाके कर्ताने अपना नाम नहीं दिया बल्कि यह लिखा है कि उसने अपनी टीका केशववर्णीकी कर्णाटवृत्ति परसे लिखी है और साथ ही यह आशा व्यक्त की है कि यदि उसकी टीकामें कुछ अशुद्धियाँ हो तो बहुश्रु त विद्वान् उन्हें शुद्ध करके पढनेकी कृपा करें।
जीवतत्त्व प्रदीपिकाको कर्णाटक वृत्तिके अनुसार रचनेकी प्रतिज्ञा टीकाकारने अपनी टीकाके प्रथम मगल श्लोकमे ही की है
'नेमिचन्द्र जिन नत्वा सिद्ध श्रीज्ञानभूषणम् ।
वृत्ति गोम्मटसारस्य कुर्वे कर्णाटवृत्तित ॥' केशववर्णीकी कर्नाटक वृत्तिकी लिखित प्रतिया आज भी उपलब्ध है। उस वृत्तिका नाम भी जीवतत्त्व प्रदीपिका है और वह स०जी०प्र० से कुछ बडी है । अत इसमें तो कोई सन्देह नही रहता कि स०जी०प्र०का के रचयिता केशववर्णी नही है। _____ तव प्रश्न होता है कि उसके रचयिता कौन है और कब उसकी रचना हुई है ? गोम्मटसारके कलकत्ता संस्करणके अन्तमें एक प्रशस्ति दी हुई है। उससे १ अनेकान्त, वर्ष ४, कि० १, पृ० ११३ आदि । २ 'यत्र रत्लैत्रिभिलब्ध्वार्हन्त्य पूज्य नरामर । निर्वान्ति मूलसघोऽय नंद्यादा
चन्द्र तारक ॥४॥ तत्र श्रीशारदागच्छे वलात्कारगणोऽन्वय । कुन्दकुन्द मुनीन्द्रस्य नद्याम्नायोऽपि नन्दतु ॥५॥ यो गुणगणभृद्गीतो भट्टारक शिरोमणि । भक्त्या नमामि त भूयो गुरुं श्रीज्ञानभूपणम् ॥६॥ कर्णाटप्रायदेशेशमल्लिभूपाल भक्तित । सिद्धान्त पाठितो येन मुनिचन्द्र नमामि तम् ॥७॥ योऽभ्यर्थ्य धर्मवृद्धयर्थं मह्य सूरिपद ददौ । भट्टारकशिरोरत्न प्रभेन्दु स