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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ४६९ गुरु अभयचन्द्र सिद्धान्तिक, और शास्त्र गुरु अभयसूरि और प्रभाचन्द्र थे । आगे लिखा है-सैद्धान्तिक अभयचन्द्रके शिष्य बालचन्द्र मुनि जयवन्त हो । शब्दागम, परमागम, तांगमके वेत्ता तथा सकल अन्यवादियोके जेता अभयसूरि सिद्धान्ती जयवन्त हो।
विचारणीय यह है कि श्रवणबेल गोलाके शिलोलेखमें निर्दिष्ट अभयचन्द्र और उनके शिष्य बालचन्द पण्डित तथा श्रुतमुनिकी प्रशस्तिमें स्मृत अभयचन्द्र और उनके शिष्य वालचन्द्र मुनि क्या एक ही व्यक्ति है। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना उचित होगा कि उक्त शिलालेख मूलसघ देशीगण और पुस्तक गच्छके आचार्योसे सम्बद्ध है तथा श्रु तमुनिकी प्रशस्तिभी मूलसघ, देशीगण और पुस्तक गच्छकी इगलेश्वर शाखासे-सम्बद्ध है । अन्तर इतना ही है कि एक जगह बालचन्दको पण्डित लिखा है और एक जगह मुनि । हो सकता है कि मन्दप्रबोधिकाकी रचनाके समय वे केवल वालचन्द पण्डित हो और पीछे उन्होने मुनिपद धारण कर लिया हो।
किन्तु इन दोनो उल्लेखोके समन्वयमें सबसे बडी बाधा बेलूरके शिलालेख है जिनमें शक स० १२०१ मे अभयचन्दकी और उनसे ५ वर्ष पूर्व बालचन्दकी मृत्यु बतलाई है। क्योकि परमागमसारकी रचनाके समय यदि श्र तमुनिकी अवस्था ५० वर्ष भी मान ली जाये तो शक स० १२१३ में उनका जन्म हुआ होगा। उस समयसे बहुत पहले अभयचन्द और बालचन्दका स्वर्गवास हो चुका था।
किन्तु श्रवणवेलगोलाके जस शिलालेखमें अभयचन्द्र और उनके शिष्य बालचन्द्र पण्डितका नाम है वह शिलालेख शक स० १२३५ का है। शक स० १२३५ में शुभचन्द्र विद्यकी मृत्यु हुई और उनकी स्मृतिमें उनके शिष्योने उनकी निपद्या निर्माण कराई। शिलालेखके अनुसार शुभचन्द्रके शिष्य चारुकीर्ति थे, चारुकीतिके शिष्य माघनन्दि थे, माघनन्दिके शिष्य अभयचन्द्र और अभयचन्द्रके शिष्य बालचन्द्र पण्डित थे। ऐसी स्थितिसे अभयचन्द्र और वालचन्द्रकी मृत्यु शक स० १२०१ में या उससे पूर्व कैसे हो सकती है ? अधिक सम्भव यही प्रतीत होता है कि अपने दादा गुरु शुभचन्द्रकी मृत्युके समय अभयचन्द्र और उनके शिष्य वालचन्द्र जीवित थे और ऐसा होनेसे परमागमसारके रचयिता श्रुतमनिके वे दोनो व्रतगुरु हो सकते है। अत मन्दप्रबोधिकाकी रचनाका काल ईस्वी सन् की तेरहवी शताब्दीके तीसरे चरणकी अपेक्षा चौदहवी शताब्दीका प्रथम चरण होना चाहिये।
श्रु तमुनिके विद्यागुरु अभयसूरि सिद्धान्ती थे और गोमट्टसारकी कर्नाटक