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उत्तरकालीन कर्म - साहित्य ४६५
प्रकाशित हो चुकी है । इनमें मन्द प्रबोधिका जीवकाण्डकी गाथा ३८३ तक ही
मुद्रित है । इस टीका कर्ता अभयचन्द्र है । अभयचन्द्र ने अपनी टीका पूरे गोमट्टसार पर रची थी । या उसे उन्होने अपूर्ण ही छोड दिया था, यह अभी तक अनिर्णीत है ।
जीवतत्त्वप्रदीपिका टीकाके अवलोकनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उसके रचयिताने मन्द प्रवोधिका टीकाका पूरा अनुसरण किया है । उसके बहुतसे विवरण मन्दप्रबोधिका अनुसार है । मन्द प्रवोधिका अधिकाश परिभाषिक विवरोको जी० प्रदीपिका में पूरी तरहसे अपना लिया गया है । जी० प्रदीपिकाके प्रत्येक अध्यायके आरम्भमे जो सस्कृत पद्य दिये गये है वे भी मन्द प्रवोधिका में पाये जाने वाले पद्योकी अनुकृति है । जी० १ प्रदी० में अभयचन्द्रका नामोल्लेख भी किया गया है ।
जी०का०गा० ३८३ की मन्दर प्रबोधिका टीकामें गाथाका व्याख्यान न करके केवल इतना लिखा है कि श्रीमदभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती कृत व्याख्यान यहाँ समाप्त हो जाता है । अत यह कर्णाटवृत्तिके अनुसार कहता है । यदि यह वाक्य जी० प्रदीपिका में होता तो उससे यह स्पष्ट था कि वह बात जी० प्रदीपिकाके कर्ता कही है । किन्तु टोडरमलजीको टीका जी० प्रदीपिकाका ही अनुवाद है । और उसमें उक्त वाक्यका अनुवाद नही है । अत जी० प्रदी० के कर्ताका तो यह वचन हो नही सकता और मन्दप्रवोधिकाका कर्ता ऐसी बात लिख नही सकता । अत उक्त कथन किसका है यह स्पष्ट नही होता । और उसके आधार पर यह निष्कर्ष नही निकाला जा सकता कि जी० प्रदी० के कर्ता को भी यही तक टीका प्राप्त हुई थी ।
इसके सिवाय कर्मकाण्डके कलकत्ता सस्करणमें दी हुई सपादकीय टिप्पणोसे वह प्रकट होता है कि सभवतया उनके सामने कर्मकाण्ड पर अभयचन्द्र रचित मन्द प्रबीधिका टीका वर्तमान थी क्योकि उन्होने अपने टिप्पणोमें यह वतलाया है कि जी० प्र० के मन्द प्र० में इतना पाठ अधिक है और उस पाठको उद्धृत भी किया है | अत मन्द प्रबोधिका टीकाकी प्रतियोकी खोज किये बिना यह कहना शक्य नही है हि अभयचन्द्रने अपनी मन्द प्रबोधिका टीका गोमट्टसार जीवकाण्डके अमुक भाग तक बनाई थी ।
१ ' इति श्रीमदभयचन्द्रसूरिसिद्धान्तचक्रवर्त्य भिप्राय ।
जी०का ०टी०, गा० १३ ।
२ 'म० प्र०—- 'श्रीमदभयचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीविहितव्याख्याना विश्रान्तमिति - कर्णाटवृत्यनुरूपमयमनुवदति ।
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