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कसायपाहुड ३१ उसकी विशालताका परिचय पूर्वपीठिकामे दिया गया है। किन्तु उस विशाल द्वादशागको 'सूत्र' भी कहते थे। कालक्रमसे जैन परम्परामें व्यक्तिविशेपके द्वारा रचित ग्रन्थोको ही सूत्र कहनेकी परिपाटी प्रवर्तित होगई थी। उसके अनुसार जो गणधरके द्वारा कथित अथवा प्रत्येकवुके द्वारा कथित अथवा श्रुतकेवलीके द्वाग कथित, अथवा अभिन्नदसपूर्वीके द्वारा कथित हो उसे सूत्र' कहते थे। ____ इसीमे जयधवलाम यह शका की गई है कि गुणधराचार्य न तो गणधर थे, श्रुतकेवली थे न प्रत्येकबुद्ध थे और न अभिन्नदमपूर्वी थे । तब उनके हाग रचित गाथाओको सूत्र क्यो कहा गया ? इस गकाका ममाधान करते हए श्रीवीरमेन स्वामीने कहा है कि गुणघराचार्यके द्वाग रचित गाथाएं निर्दोप है, अल्पाक्षर है,
और असदिग्ध है, अत सूत्रमम होनेसे उन्हे सूत्र कहा गया है । ___ इस समाधानके द्वारा जयधवलाकारने सूत्रके सर्वप्रसिद्ध लक्षणको उद्धृत करके कमायपाहुडके गाथाओकी सूत्रमजाका समर्थन किया है। सूत्रका3 मर्वप्रसिद्ध लक्षण इस प्रकार है-'जिममें अल्प अक्षर हो, जो असदिग्ध हो, जिममे सार भरा हो, जिसका निर्णय गूढ हो, जो निर्दोप हो, मयुक्तिक हो और तथ्यभूत हो उसे विद्वान् सूत्र कहते है । सूत्रका यह लक्षण सर्वमान्य है।
इमपर भी जयधवलामे यह शका की गई है कि यह सम्पूर्ण सूत्रलक्षण तो जिनदेवके मुखमे निकले हुए अर्थपदोमे ही सभव है, गणधरके मुखमे निकली हुई ग्रन्थरचनामें नही, क्योकि गणधरके द्वारा रचित द्वादगागरूप श्रुत तो वडा विशाल होता है ? इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि गणधरके वचन भी सूत्रसम होनेमे सूत्र कहे जानेके योग्य होते है। ___इस चर्चामे यही प्रकट होता है कि 'सूत्रमज्ञाके योग्य वे ही रचनाए होती है जिनमें सूत्रका उक्त लक्षण घटित होता है। चू कि इस प्रकारकी रचना करना साधारण व्यक्तिका काम नही है, अत विशिष्ट व्यक्तियोकी उक्त प्रकारकी कृतिया भी सूत्र कही जा सकती है । फलत गुणधररचित कसायपाहुडकी गाथाओको भी सूत्र कहा जा सकता है।
किन्तु गुणधराचार्यने जिन एकमौ अस्सी गाथाओमें कमायपाहुडको उपसहृत किया है उनमें उन्हें 'सुत्तगाहा' नहीं कहा। 'गाहासदे अमीदे' आदि जिन गाथाओके गुणधरकृत होनेमें विवाद रहा है उनमे ही उन्हें 'सुत्तगाहा' कहा है । उनमे भी १ 'सुत्त गणधरकहिय तहेव पत्त यवुद्धकहिय च । सुदकेवलिणा कहिय अभिण्णदमपुन्वि.
कहिय च ||३४|| भ० आ० । २ क. पा०, भा० १, पृ० १५३.१५४ । ३ 'अत्रोपयोगी श्लोक -अल्पाभरममन्ग्धि माग्वद्गृढनिर्णयम । निर्दाप हेतुमत्त य मत्र
मित्युपते बुधै ।'-क० पा० मा० १, पृ० १५४ ।