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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य · ४४३
कर्मकाण्डके भावचूलिका नामक सातवें अधिकारमें भावोका कथन विविध भगोंके साथ किया गया है । यहाँ भगोको छोडकर सामान्य कथन है किन्तु कर्मकाण्डमें मार्गणाओके आश्रयसे भावीका कथन नहीं है, जबकि इस ग्रन्थमें है। पहले गुणस्थानोमें कथन है और फिर मार्गणास्थानोमें कथन है।
पाँचो भावीके उत्तर भेदोमेंसे किस स्थानमें कितने भाव होते है, कितने नही होते और कितने भाव उसी स्थानमें होकर आगे नहीं होते। इन तीन बातोंको लेकर भावोका कथन होनेके कारण इसे भावविभगी कहते है। वैसे दूसरी' गाथामें तो सूत्रोक्त मूलभाव तथा उत्तरभावोका स्वरूप कहनेकी प्रतिज्ञाकी गई है । उसपरसे इसे -भाव स्वरूप' नामसे कहा जा सकता है।
श्रीमाणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला बम्बईसे प्रकाशित भावसग्रहादि नामक २०वें ग्रन्थमें यह ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका है। उसमें भावविभगी नाम पर लगे पाद टिप्पणमें लिखा है कि पुस्तकके अन्तमें 'भावसग्रह समाप्त.' पाठ था किन्तु प्रारम्भमें उल्लिखित नामके अनुसार उसे परिवर्तित करके 'भावविभगी समाप्ता' ऐसा छापा गया है । इसपरसे उसका भावसग्रह नाम भी ज्ञात होता है ।
पुस्तकके साथमें सदृष्टियां भी बनी हुई है । सभव है ये सदृष्टियां श्रुतमुनिने ही अपने ग्रन्थमें बनाकर लगा दी हो। इनसे ग्रन्थका विषय स्पष्ट हो जाता है।
रचना सरल और स्पष्ट है। प्रत्येक वातको बहुत सरलता और स्पष्टताके साथ कहा गया है। और उसका आधार कर्मकाण्डका सातवाँ अधिकार है। गोम्मटसारको गाथाओको अनुकृति उसकी गाथाओ पर छाई हुई है। आस्रवत्रिभगी
इन्ही श्रुतमुनिकी दूसरी कृति आस्रवत्रिभगी है । कर्मकाण्डके प्रत्यय नामक छठे अधिकारमें भी आस्रवके प्रत्ययोका कथन आया है । और यहाँ उस प्रकरण की दो एक गाथाएँ भी ज्योकी-त्यो ले ली गई हैं। किन्तु कर्मकाण्डमें केवल गुणस्थानोमें भगोके साथ कथन है जव कि यहाँ गुणस्थानोमें सामान्य कथन है
और उसके सिवाय चौदह मार्गणाओमें भी प्रत्ययोका कथन है जो कर्मकाण्डमें नही है । तथापि उसका आधार कर्मकाण्ड ही प्रतीत होता है। आस्रवके कारण १ 'इदि वंदिय पचगुरू सरूव सिद्धत्य भवियवोहत्य ।
सुत्तुत्त मुलुत्तरभावसरूव पवक्खामि ।।२।।'-भा० त्रि० । २ यह आस्रवत्रिभंगो माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे प्रकाशित भावसंग्रहादि नामक
२०वें ग्रन्थमें प्रकाशित हो चुकी है।