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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य · ४३७ के रचयिता तथागच्छके यशोविजय सूरि है जो विक्रमकी १८वी शतीके पूर्वार्धमें हुए है। तीसरीके रचयिता नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक है। इसकी प्रतियां अनेक भण्डारोमें पाई जाती है। चौथीके रचयिता ऋपभनन्दि है। आरा जैनसिद्धान्त भवनकी ग्रन्थसूचीमें ऐसा ही छपा हुआ है । उसीका निर्देश जिन रत्नकोगमे है। हमने आरासे उसकी प्रति मगाई तो नेमिचन्द्र सैद्धान्तिककी कर्मप्रकृति आई। अत उक्त ऋपभनन्दिका निर्देश भ्रमपूर्ण प्रतीत होता है किन्तु उस भ्रमका कारण क्या है यह चिन्त्य है । अस्तु,
पांचवीके रचयिता सुमतिकीर्ति है । किन्तु यह उल्लेख भी भ्रमपूर्ण ही प्रतीत होता है । कोशमें लिखा है कि ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन, वम्बईको सूचीमें कर्मप्रकृति टीकाको ज्ञानभूषण और सुमतिकीर्ति रचित बतलाया है। वही ठीक भी प्रतीत होता है क्योकि उसकी प्रति देहली और जयपुरके शास्त्र भण्डारोमें भी वर्तमान है । अस्तु,
नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक रचित कर्मप्रकृति नामक ग्रन्थकी गाथा सख्या १६२ है। यह कोई स्वतन्त्र कृति नही है किन्तु सकलित है। और इसका सकलन गोम्मटसारके कर्मकाण्डसे किया गया है । इसमें प्रकृति समुत्कीर्तन, स्थितिवन्ध, अनुभागवन्ध और मूलप्रकृतियोके बन्धके कारणोका कथन है जो कर्मकाण्डके प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामक प्रथम अधिकार, बन्धोदयसत्ता नामक द्वितीय अधिकार और प्रत्यय नामक छठे अधिकारसे सकलित किया गया है और आवश्यकतानुसार सकलयिताने कुछ अन्य गाथाएँ भी यथास्थान उसमें सम्मिलित कर दी है जो सम्भवतया सकलयिताकी कृति हो सकती है ।
कर्मप्रकृतिकी गाथाओका पूरा विश्लेषण इस प्रकार है-कर्मकाण्डके प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामक प्रथम अधिकारकी पहली गाथासे कर्मप्रकृतिका प्रारम्भ होता है इस अधिकारको प्रथम १५ गाथाएँ कर्मप्रकृतिमें यथाक्रम वर्तमान है । १५वी गाथामें सप्तभगीके द्वारा जानकर श्रद्धान करनेकी गत आई है अत कर्मप्र में १६वी गाथा सात भगोका कथन करनेवाली है। यह गाथा पञ्चास्तिकायकी १४वी गाथा है और वहीसे ली गई जान पड़ती है। इस एक गाथाके वीचमें बढ जानेसे कर्मकाण्ड और कर्मप्रकृतिकी यथाक्रम गाथा सख्यामें एकका अन्तर पड गया है । आगे पुन कर्मकाण्डकी २० पर्यन्त गाथाएँ कर्मप्रकृतिमें यथाक्रम वर्तमान है। कर्मकाण्डकी वीसवी गाथामें जिसकी सख्या कर्मप्रकृतिमें २१ है, आठो कर्मोके क्रमपाठका समर्थन करते हुए उसका उपसहार किया गया है। इसके आगे पांच गाथाएँ कर्मप्रकृतिमें नवीन है। इनमें बतलाया है कि जीवके अनादिकालसे विविध कर्मोंका बन्ध होता है। उनका उदय होनेपर जीवके राग-द्वपरूप भाव होते है । उन भावोंके कारण पुन कर्मवन्ध होता है। उस बन्धके चार भेद है।