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४३४ जैनसाहित्यका इतिहास
हमने भी इसीसे उनका साधारण परिचय देकर सन्तोप कर लिया क्योकि नवीन कर्मग्रन्योके विपयमे आवश्यक वक्तव्य देना अपेक्षित था।
उक्त नामके प्राचीन पाँचो कर्मग्रन्य विभिन्न आचार्योंकी कृति होनेसे विभिन्न कालोमें रचे गये थे । अत उनका कोई क्रम निर्धारित नही था। देवेन्द्रसूरिने अपने पाँचो कर्मग्रन्थोको पुराना नाम देकर जो क्रम निर्धारित किया, उसी क्रमके अनुसार प्राचीन कर्मग्रन्थोको भी पहला दूसरा आदि सज्ञाएं दे दी गई । फलत कर्मविपाक पहला, कर्मस्तव, दूसरा, बन्धस्वामित्व तीसरा, पडशीति चौथा और . शतक पांचवा कर्मग्रन्थ प्रसिद्ध हो गया। __ यह क्रम इतना अधिक रूढ हो गया है कि इन कर्मग्रन्थोके मूलनामसे अपरिचित भी प्रथम, द्वितीप आदि कर्मग्रन्थ कहनेसे ठीक-ठीक समझ जाते है । कर्मविपाक
इस प्रथम कर्मग्रन्थमें कर्मोकी सब प्रकृतियोके विपाकका ही मुख्य रूपसे कथन है । उस कथनको पाँच भागोमें बाटा जा सकता है
१-प्रत्येक कर्मके प्रकृति आदि भेदोका कथन । २-कर्मोकी मूल तथा उत्तरप्रकृतियाँ। ३-पाँच प्रकारके ज्ञान और चार प्रकारके दर्शनोका कथन । ४-सब प्रकृतियोका दृष्टान्तपूर्वक कार्य-कथन और ५–मव प्रकृतियोंके कारणो का कथन । इसमे केवन ६० गाथाएँ है । और इस तरह यह प्राचीन कर्मविपाकसे बहुत छोटा है। किन्तु उससे इसमें विषय अधिक है। आठों कर्मोके वन्धके जो कारण शतकमें वतलाये है, देवेन्द्रसूरिने उन्हे कर्मविपाकमें ही दे दिया है ।
प्राचीन कर्मविपाकमे श्रुतज्ञानावरण कर्मका वर्णन करते हुए श्रुतज्ञानके चौदह भेदोका निर्देश मात्र किया है। किन्तु इस कर्मविपाकमें एक गाथाके (६) द्वारा उन चौदह भेदोको गिनाया है और एक गाथा (७) के द्वारा श्रुतज्ञानके उन बीस भेदोको भी गिनाया है जो षड्खण्डागम और जीवकाण्डमें गिनाये गये है । श्वेताम्बर परम्परामें ये बीस भेद अन्य किसी ग्रन्थमें देखनेमें नही आये । २ कर्मस्तव
देवेन्द्रसूरि रचित इस नवीन कर्मस् वमें केवल ३४ गाथाएँ है और इस तरह यह भी प्राचीन कर्मस्तवसे प्रमाणमे छोटा है । इसमे गुणस्थानोमे कर्मोके बन्ध, . उदय, उदीरणा और सत्त्वका कथन थोडेमें वडे सुन्दर ढंगसे किया गया है। ३ बन्धस्वामित्व
बन्ध स्वामित्व नामके इस तीसरे कर्मग्रन्थकी गाथा सख्या मात्र २४ है । और इस तरह प्राचीन बन्ध स्वामित्वसे प्रमाणमें यह भी छोटा है। दोनोमें विषय समान होते हुए भी प्राचीनमें जो वात विस्तारसे कही है नवीनमे उसे