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४३२ · जैनसाहित्यका इतिहास
सिद्धर्षिने अपनी उपमिति भव प्रपञ्च कथामें गर्गपिका गुरु रूपसे स्मरण किया है। और उक्त कथा उन्होने स० ९६२ में समाप्त की थी। अत गर्पि और उनकी कृति कर्मविपाकका समय विक्रमकी नौवी शताब्दीका अन्तिम चरण या दशवीका प्रथम चरण होना चाहिये। गोविन्दाचार्य रचित कर्मस्तव वृत्ति ____ कर्मस्तव' के सम्बन्धमे पहले लिखा जा चुका है । श्वेताम्बर परम्परामें उसे द्वितीय प्राचीन कर्म ग्रथके रूपमे माना जाता है। इस पर २४ और ३२ गाथात्मक दो भाग्य भी है। उनके कर्ता आदिके सम्बन्धमें कुछ भी ज्ञात नही है । तथा गोविन्दाचार्य रचित एक सस्कृत वृत्ति है। इस वृत्तिकी एक प्रति १२८८ की लिखी हुई उपलब्ध है । अत यह निश्चित है कि ग्रन्थकार उससे पहले हो गये है। बन्दस्वामित्व
यह एक ५४ गाथाओका प्रकरण ग्रन्थ है। जैसा कि नामसे प्रकट होता है, इसमें चौदह मार्गणाओके आश्रयसे कर्मप्रकृतियोके वन्धके स्वामियोका कथन है । इसके कर्ताका नाम अज्ञात है । अन्तिम गाथामें उसने कहा है-'मुझ जडबुद्धिने पूर्व सूरि रचित प्रकरणोमेंसे कर्मस्तवको सुनकर इस वन्ध स्वामित्वको रचा।' अत कर्मस्तवके पश्चात् इसकी रचना हुई है । इस प्रकरण पर हरिभद्रसूरि रचित एक सस्कृत टीका है । यह वृहद्गच्छके मानदेव सूरि जिनदेव उपाध्यायके शिष्य थे। इन्होने जयसिंहके राज्यमें वि० स० ११७२ में वन्धस्वामित्व पडशीति आदि कर्मग्रन्थो पर वृत्ति रची थी। इन्होने अपनी टीकामें कर्मस्तव टीकाका निर्देश किया है । यदि यह टीका गोविन्दाचार्य रचित है तो गोविन्दाचार्यका समय उनसे पहले होना चाहिये। जिनवल्लभ गणि रचित षडशीति
यह छियासी गाथाओका एक प्रकरण ग्रन्थ है। इसीसे इसका नाम षडशीति १ यह कर्मस्तव भी गोविन्दाचार्यकी टीकाके साथ आत्मानन्दसभा भावनगरसे
'सटीका चत्वार कर्मग्रन्था' के अन्तर्गत प्रकाशित हो चुका है। २ यह बन्धस्वामित्व भी हरिभद्रसूरि रचित टीकाके साथ 'सटीका चत्वार
कर्मग्रन्था' के अन्तर्गत आत्मानन्द जैन सभा भावनगरसे प्रकाशित हुआ है। ३ 'इय पुन्वसूरि कय पगरेणसु जडबुद्धिणा मए रइय ।
बधसामित्तमिण नेय कम्मत्थय सोउ ॥५४॥'-व० स्वा० । ४ 'आसा दसानामपि गाथाना पुनर्व्याख्यान कर्मस्तवटीकातो बोद्ध व्यमिति ।
-प्रा०व० स्वा० गा० १४ ।
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