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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ४१५ में पहुँचता है और वहाँ अन्तर्मुहूर्तकाल तक रहता है। उसके बाद उसका वहाँसे पतन हो जाता है। पतनके कारण दो है या तो मृत्युकालका उपस्थित होना या उपशमकालका समाप्त होना। यदि मृत्युकाल आ जाता है तो वह मरकर देवगतिमें जन्म लेता है और उसके चौथा गुणस्थान हो जाता है। यदि उपशमकालके समाप्त हो जानेसे गिरता है तो ग्यारहवेंसे गिरकर दसवेंमें, दसवेसे नौवेंमें, नौवेसे आठवेमें और आठवेंसे सातवेंमें पहुंचता है। पीछे यदि उसके परिणाम विशुद्ध होते है तो फिर आठवें आदि गुणस्थानोंमें चढ जाता है, अन्यथा नीचे गिर जाता है (अ० ३१०)। ___ द्वितीयोपशम सम्यक्त्वका काल भी अन्तमुहूर्त है। उसके साथ अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थानमें चढनेवाला जीव जितनी देरमें गिरकर पुन आठवेंमें आ जाता है, उससे सख्यातगुणाकाल द्वितीयोपशमसम्यक्त्वका है । जव उसका काल पूरा होता है तो या तो वह जीव गिरकर चौथे गुणस्थानमें आ जाता है अथवा पाचवें गुणस्थानमें आ जाता है। अथवा द्वितीयोपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलीकाल शेप रहनेपर अनन्तानुवन्धीकपायका उदय होनेसे सासादनगुणस्थानको प्राप्त हो जाता है। यदि वह मरता है तो यतिवृषभ आचार्यके वचनोके अनुसार मरकर नियमसे देव होता है । (३४९ गा०) क्योकि जिसने परभवकी नरक, तिर्यञ्च या मनुष्यायुका वन्ध कर लिया है वह मनुष्य चारित्रमोहनीयका उपशम नही कर सकता।
यहाँ ग्रन्थकारने कपायपाहुडपर चूर्णिसूत्रोके रचयिता यतिवृपभ'के मतका उल्लेख करके पट्खण्डागम सूत्रोके रचयिता भूतबलिका भी मत दिया है। उनका मत यतिवृपभके मतके विपरीत है। अर्थात् यतिवृपभके मतमे उपशम श्रेणीसे गिरा हुआ जीव दूसरे सासादनगुणस्थानको प्राप्त हो सकता है किन्तु भूतवली के मतसे प्राप्त नही हो सकता। इन्ही दोनो आचार्योंकी उक्त कृतियो तथा उनकी टीकाओके आधारपर लब्धिसारकी रचना की गई है।
गाथा ३९१ तक चारित्रमीहनीय कर्मको उपशम करनेका कथन है । उससे आगे चारित्रमोहकी क्षपणाका कथन है ।
चारित्रमोहकी क्षपणाके अन्तर्गत जो क्रियाएँ होती है उन्हीको आधार बनाकर चारित्रमोहकी क्षपणाके अधिकारोका नामकरण किया गया है वे अधिकार १ जरि मरदि सासणो सो णिरय तिरिक्ख पर ण गच्छेदि ।
णियमा देव गच्छदि जइवसहमुणिंदवयणेण ॥३४९॥-लसा० । उवसमसेढीदो पुण ओदिण्णो सासण ण पाउणदि। भूदवलिणाह णिम्मलसुत्तस्स फुडोवदेसेण ॥३५१।।-लसा० ।