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४०० • जैनसाहित्यका इतिहास
क्षेत्रविपाकी, भवविपाकी और जीवविपाकी प्रकृतियां, कर्ममें निक्षेपयोजना आदिका कथन ८६ गाथाओमें किया गया है ।
इस अधिकारकी गा० २२ में कर्मोके उत्तरभेदोकी संख्या दी है किन्तु आगे उन भेदोको न बतलाकर उनमें से कुछ भेदोके सम्बन्धमें विशेष बाते वतला दी है । जैसे दर्शनावरणीयकर्मके नौ भेदोमेंसे पाँच निद्राओका स्वरूप गा० २३-२४
२५ द्वारा बतलाया है । फिर गाथा २६ में मोहनीयकर्मके एक भेद मिथ्यात्वके तीन भाग कैसे होते हैं, यह बतलाया है । फिर गाथा २७ में नामकर्मके भेदोमेंसे शरीरनामकर्मके पाँच भेदोके सयोगी भेद वतलाये है । गा० २८ में अगोपाग वतलाये है । गा० २९, ३०, ३१, ३२ में किस सहननवाला जीव मरकर किस नरक और किस स्वर्ग तक जन्म लेता है, यह कथन किया है । गाया ३३ में बतलाया है कि उष्णनामकर्म और आतपनामकर्मका उदय किसके होता है । इस प्रकार आठ कर्मोकी प्रकृतियोको वतलाये बिना उनमेंसे किन्ही प्रकृतियोके सम्बन्धमें 'कुछ विशेष कथन करनेसे ग्रन्थ अधूरा सा प्रतीत होता है । कुछ वर्षो पहले इस प्रश्नको प० परमानन्दजीने उठाया था । और फिर यह भी प्रकट किया था कि कर्मप्रकृति नामक एक ग्रन्थ नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कृत मिला है । उसपर - से कर्मकाण्डका अधूरापन दूर हो जाता है । इस कर्मप्रकृतिकी १५९ गाथाओमेंसे ७५ गाथाएँ ऐसी है जो उक्त कर्मकाण्डमें नही पाई जाती और जिन्हें यथास्थान जोड देनेसे कर्मकाण्डका सारा अधूरापन दूर होकर सबकुछ सुसम्बद्ध हो जाता है । पं० परमानन्दजीने उन छूटी हुई ७५ गाथाओको भी अपने उस लेखमें दिया था और यथास्थान उनकी योजना भी की थी । किन्तु प्रो० हीरालालजी आदि कतिपय विद्वानोने प० परमानन्दजीकी योजना तथा उनके मन्तव्यको स्वीकृत नही किया । उनका कहना था कि कर्मकाण्ड अपनेमें पूर्ण है उसमें अधूरापन नही है ।
प० श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार ने 'पुरातन जैन वाक्य सूची' की अपनी प्रस्तावना में उक्त चर्चाका विवरण देते हुए 'प० परमानन्दजीके इस मन्तव्यसे अपनी असहमति प्रकट की है कि कर्मप्रकृतिकी ७५ गाथाएँ कर्मकाण्डकी अंगभूत है ।
१ देखो - अनेकान्त वर्ष ३, कि० ४, पृ० ३०१ |
२ अनेकान्त, वर्ष ३, कि० ८-९ में 'गोम्मटसारको त्रुटिपूर्ति' शीर्षक लेख । ३ अनेकान्त, वर्ष ३, कि० ११ में 'गोमटसार कर्मकाण्डकी त्रुटिपूर्ति पर
विचार' शीर्षक लेख ।
पृ० ७४ आदि ।
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