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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य - ३९५ चुकी थी। यदि चामुण्डरायपुराणमें मूर्तिकी स्थापनाकी कोई चर्चा न होनेको महत्व दिया जाये तो कहना होगा कि वि०स० १०३५ और १०५० के वीचमें किसी समय मूर्तिकी प्रतिष्ठा हुई और इसी १५ वर्षके अन्तरालमें गोम्मटसारकी रचना हुई।
प्रेमीजी ने गगनरेश राचमल्लका राज्यकाल वि०स० १०३१ से १०४१ तक लिखा है । और भुजवलि शतक अनुसार उसीके राज्यकालमे मूर्तिकी प्रतिष्ठा हुई थी, अत मूर्ति स्थापनाका समय ९८१ ई० (वि०स० १०३८) ही उपयुक्त जान पडता है । उसमें बाहुवलि चरितका तिथि क्रम भी घटित हो जाता है और चामुण्डराय पुराणमें उल्लेख न होने वाली वातकी सगति भी वैठ जाती है। यदि यह ठीक है तो उसके बाद स० १०४० के लगभग गोम्मटसारकी रचना होना सभव है।
इतने विस्तारसे इस पर प्रकाश डालनेका कारण यह है कि अमितगतिने अपना सस्कृत पञ्चसग्रह वि०स० १०७३ में बनाकर समाप्त किया था । और उसके देखनेसे प्रकट होता है कि अमितगतिने सम्भवतया गोम्मटसार को देखा था, क्योकि स० पञ्चसग्रहके प्रथम अध्यायमें जो ३६३ मिथ्यामतोकी उपपत्ति दी है वह कर्मकाण्डसे ली गई प्रतीत होती है । प्रा० पं०स० में तो वह है ही नही और कर्मकाण्डसे बिल्कुल मेल खाती है। कर्मकाण्डमें काल ईश्वर आत्मा नियति और स्वभावका जो लक्षण दिया है उसीका अनुवाद स० पञ्चसग्रह में है । केवल क्रममें अन्तर है । उसमें स्वभाव, नियति, काल, ईश्वर और आत्मा यह क्रम रखा गया है। नीचे कर्मकाण्डकी गाथा के साथ स. पञ्चसग्रहसे उसका सस्कृत अनुवाद दिया जाता है१ कालो सव्व जणयदि कालो सव्व विणस्सदे भूद ।
जागत्ति हि सुत्तेसु वि ण सक्कदे वचिदु कालो ॥८७९॥ क० का० । सुप्तेपु जागति सदैव काल काल प्रजा सहरते समस्ता ।
भूतानि काल पचतीति मूढा कालस्य कर्तत्त्वमुदाहरन्ति ॥३१२॥ २ अण्णाणि हु अणीसो अप्पा तस्स य सुह च दुक्ख च ।
सग्गं णिरय गमण सव्व ईसरकय होदि ॥८८०॥ अज्ञ शरीरी नरकेऽथ नाके प्रपेर्यमाणो व्रजतीश्वरेण ।
स्वस्याक्षमो दुःखसुखे विधातुमिद वदन्तीश्वरवादिनोऽन्ये ॥३१३॥ ३ एक्को चेव महप्पा पुरिसो देवो य सन्चवावी य ।
सन्वगणिगूढो वि य सचेयणो णिग्गुणो परमो ॥८८१॥ एको देव सर्वभूतेषु लीनो नित्यो व्यापी सर्वकार्याणि कर्ता । आत्मा मूर्त सर्वभूतस्वरूप साक्षाज्ज्ञाता निर्गुण शुद्धरूप ॥३१४॥