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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ३७५
यह निश्चित है कि धर्मरत्नाकरसे पूर्व डड्ढाका पञ्चसग्रह रचा गया है । धर्मरत्नाकरमें उसका रचनाकाल वि०स० १०५५ दिया है। और अमित गतिके पञ्चसग्रहमें उसका रचनाकाल १०७० दिया है। अत यह सुनिश्चित है कि अमितगतिके पञ्चसनहसे कम-से-कम दो दशक पूर्व डड्ढाका पञ्चसग्रह रचा गया है । इस विषयमें यह भी उल्लेखनीय है कि आचार्य नेमिचन्द्रके गोम्मटसारका प्रभाव अमितगतिके पञ्चसग्रह पर है किन्तु डड्ढाके पञ्चसग्रह पर नही है। अत गोम्मटसारकी रचना इन दोनो पञ्चसग्रहोके रचनाकालके मध्यमें किसी समय हुई है।
डड्ढाके पञ्चसग्रहके अन्तमें प्रथकारने अपना परिचय केवल एक श्लोकके द्वारा दिया है
श्री चित्रकूटवास्तव्यप्राग्वाटवणिजा कृते ।
श्रीपालसुतडड्ढेण स्फुट प्रकृतिसग्रह । यह श्लोक चतुर्थ शतक प्रकरणके भी अन्तमें आता है । उसमें अन्तिम चरण 'स्फुटार्थ पञ्चसग्रहे है। इससे प्रकट है कि ग्रन्थकारका नाम डड्ढा है और उनके पिताका नाम श्रीपाल था । श्लोकके पूर्वाद्ध का 'वणिजाकृते' पद गडबड है। 'वणिजा' पद तृतीयान्त होनेसे डड्ढाका विशेषण प्रतीत होता है जो वतलाता है कि वे चित्रकूट वासी और पोरवाड जातिके वणिक् थे । चित्रकूट चित्तौड़का पुराना नाम है। आज भी उस ओर पोरवाड जातिका निवास है। किन्तु उक्त अर्थसे 'कृते' शब्द व्यर्थ पड़ जाता है। यदि यह अर्थ किया जाता है कि चित्रकूटवासी पोरवाड जातिके वणिक्के लिए रचा तो उस वणिक्का नाम ज्ञात नही होता । अस्तु, विषय परिचय
यत यह पञ्चसग्रह प्राकृत पञ्चसग्रहका ही सस्कृत श्लोकोमें अनुवादरूप है अत इसकी विषयवस्तु वही है जो प्राकृत पञ्चसंग्रह की है। उसीके अनुसार इसमें जीवसमास, प्रकृतिसमुत्कीर्तन, कर्मस्तव, शतक और सप्ततिका नामक पाँच प्रकरण है । प्रा० प स के जीवसमास प्रकरणमें २०६ गाथा है और इसकेमें २५७ श्लोक है । इस अन्तरके कई कारण है । १ डड्ढाने प्रारम्भमें अपना मगल पृथक् किया है । २ श्लोक ४-५ के द्वारा जीवके पांच भाव गिनाकर उन्हें वन्ध और मोक्षका कारण कहा है । ३ श्लोक २०-२७ के द्वारा दस धर्मोके नाम गिना कर उनका स्वरूप कहा है। ४ वेदके कथनमें श्लोक १२८ से १३१ तक द्रव्यवेदके चिन्होका कथन किया है। साराश यह है कि प्रा० प०स० मे वेदमार्गणाका कथन केवल आठ गाथाओमें है। किन्तु इस स० प०स० मे श्लोक