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________________ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ३७३ नही । जीव समास प्रकरण की ७४वी मूल गाथाका पद्यानुवाद जितना डड्ढाका मूलके समीप है उतना अमितगतिका नही। २ कितने ही स्थलो पर डड्ढाकी रचना अमितगतिकी अपेक्षा अधिक सुन्दर है। ३ अमित गतिने 'जीव समास' की 'साहारणमाहारो' आदि तीन गाथामोको स्पर्श भी नहीं किया, किन्तु डड्ढाने उनका सुन्दर पद्यानुवाद किया है । उक्त स्थल पर अमित गतिने गोम्मटसार जीवकाण्डकी 'उववाद मारणतिय' इत्यादि गाथाका आशय लेकर उसका अनुवाद किया है। किन्तु जीवसमास प्रकरणमें उक्त गाथाके न होनेसे डड्ढाने उसका पद्यानुवाद नही किया। ४ कितने ही स्थलो पर डड्ढाने अमितगतिकी अपेक्षा कुछ विषयोर्का बढाया भी है। यथा प्रथम प्रकरणमें धर्मोंका स्वरूप, योगमार्गणाके अन्तमें विक्रिया आदिका स्वरूप । ५ अमित गतिने सप्ततिकामें पृष्ठ २२१ पर श्लोक ४५३ में शेषमार्गणामें बन्धादित्रिकको न कहकर मूलके समान 'पर्यालोच्यो यथागमम्' कहकर समाप्त कर दिया है । किन्तु डड्ढाने श्लोक ३९० मे 'वन्धादित्रय नेयं यथागमम्' कहकर भी उसके आगे समस्त मार्गणाओमें वन्धादित्रिंकको गिनाया है जो प्राकृत पञ्चसग्रहके अनुसार होना ही चाहिये । __इसतरह शास्त्रीजीने डड्ढाकी रचनासे प्रभावित होनेपर भी उसे अमितगतिकी अनुकृति बताया। किन्तु वस्तुस्थिति इससे विपरीत है। रचनाकाल डड्ढाके पञ्चसग्रहका अन्त परीक्षण करनेसे नीचे लिखे तथ्य प्रकाशमें आते है १ डड्ढाने शतक प्रकरणमें पृ० ६८३ पर जो मिथ्यात्वके पांच भेदोका स्वरूप गद्यमें लिखा है वह पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि ( ८1१) से लिया गया है अत उनके पञ्चसंग्रहकी रचना पूज्यपाद (वि०की छठी शताब्दी) के पश्चात् २ सप्ततिकाके अन्तमें (पृ० ७३७ ) 'उक्तच' करके जो कारिका दी गई है वह अकलकदेवके लधीयस्त्रयके सातवें परिच्छेदकी चतुर्थ कारिका है। अत अकलंकदेवके लधीयस्त्रयके ( वि०की सातवी शताब्दी ) पश्चात् उक्त पचसग्रह रचा गया है। ३ जीव समास प्रकरणमें (पृ० ६६७ ) "उक्तञ्च सिद्धान्ते' करके जो वाक्य उद्धृत है वह वीरसेनकी धवला टीकाका है। अत धवला टीका (नवमी शती) के पश्चात् उक्त पच सग्रहकी रचना हुई है।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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