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________________ अन्य कर्म साहित्य • ३६९ स्थानोपर किया है ।एक जगह लिखा है कि कृष्टियो का लक्षण जैसा कसायपाहुडमें कहा है वैमा जानना । दूसरी जगह लिखा है कि अपूर्व करण और अनिवृत्तिकरणके कालोके विषयमें अनेक वक्तव्यता है सो जैसे कसायपाहुड वा कर्मप्रकृतिसग्रहणीमें कहा है वैसे कहना चाहिए।' यह सब कथन कसायपाहुडके चारित्र मोह क्षपणा नामक अधिकारमें है । चूर्णिकारने शतकका निर्देश भी अनेक स्थलो पर किया है। किंतु जिन विषयोके लिये शतकका निर्देश किया गया है वे विषय मूल शतकमें नहीं है, किंतु. उसकी चूणिमें है । मत' शतक नामसे चूर्णिकारने उसकी चूर्णिका ही निर्देश किया है । यथा- आठो कर्मोके अर्थका विवरण जाननेके लिये शतकका निर्देश किया गया है। किंतु शतक गा० ३८ में आठो कर्मोके नाम मात्र गिनाये हैं। और गाथा ३९ में उन आठो कर्मों की अवान्तर प्रकृतियोकी सख्या मात्र । वतलाई है किंतु उनकी चूणिमें आठो कर्मों और उनकी उत्तर प्रकृतियोका कथन विस्तारसे किया है । इसी तरह जीवस्थान और गुणस्थानोका विवरण जाननेके लिए चूर्णिकारने शतकको देखनेका निर्देश किया है किंतु मूल शतकमें उनका विवरण नहीं है, चूर्णिमें है। अत यह निश्चित है कि शतक नामसे चूर्णिकारने शतकका ही निर्देश किया है। रचनाकाल मलयगिरिने अपनी सप्ततिका टीकाके आरम्भमें लिखा है चूर्णयो नावगम्यन्ते सप्ततेमन्दबुद्धिभि तत स्पष्टाववोधार्थ तस्याष्टीका करोम्यहम् ॥ अर्थात् मन्दबुद्धि लोग सप्ततिकी चूणियोको नही समझ सकते। इसलिए बोध करानेके लिए मैं उसकी टीका करता हूँ। __बहु वचनान्त चूर्णय' पदसे तो यही व्यक्त होता है कि सप्ततिकी अनेक चूणियाँ थी। किंतु मलयगिरिने अपनी टीका प्रकृतचूणिके आधारपर ही रची है, यह बात टीकामें प्रमाण रूपसे उद्धृत चूणिवाक्योंसे प्रमाणित होती है । अत विक्रमकी बारहवी शतीसे पहले इस चूणिकी रचना हो चुकी थी। १ 'तेसिं लक्खणं जहा कसायपाहुडे।'-सि० च०, पृ० ६६ । • एस्थ अपुवकरण अणियहिअद्धासु अणेगाई वत्तव्वगाइ जहा कसायपाहुडे कम्मपगडि सगहणीए वा तहा वत्तन्व। -सि० चू०, पृ० ६२।। ३. 'तत्थ मूलपगती अठ्ठबिहा, त जहा-णाणावरणिज्ज जावतरायियमिति । एयासि अत्य विवरणा जहा सयगे। -सि० च०, पृ० ३ । ४ 'जीवट्ठाणाण विवरण जहा सयगे' -सि० चू०, पृ० ४ । ५ 'मिच्छादिट्ठीपभिती जाव अजोगित्ति, एएसि विवरण जहा सयगे'-सि च पृ ४ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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