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३४८ : जैनसाहित्यका इतिहास तरतिए' 'मेसेगदेगम्हि' के स्थान देसेवादेराम्हि' और 'इरवण्णा' के स्थान में 'पण्णासा' । किन्तु उनमें गाशयभेद नहीं है। अत: ये गाथाएँ पचरा ग्रहसे ही उद्धृत की गई होनी चाहिए। इसी तरह पवलागे एक और गाथा इस प्रकार । द्धृत है
एयगरोत्तोगाढंगग्नपदेसेहि कम्मणो जोग्गं । बधइ जहुत्तहेदू सादियमहणादिय वा वि ॥
(पटसं० पु० १२, पृ० २७७) यद्यपि यह गाशा गतक प्रकरणमे भी है किन्तु उसमे 'एयपदेमोगाढं' पाठ है । और प० रा० में एयक्सेत्तोगाढ पाठ (गाया स ० ४९४) है। अत यह भी उसीसे उद्धृत की गयी होनी चाहिए । ____उक्त उद्धरणो से प्रकट है कि धवलासे पहले पचसग्रहकी रचना हो चुकी थी। चूंकि धवला विक्रमकी नीवी शताब्दीमें रचकर पूर्ण हुई थी। अतः पचस ग्रह उससे पहले रचा जा चुका था।
४ शतक गाथा ९३ में पाठ है-'माउकस्स पदेसस्म पच मोहस्स सत्तठाणाणि' । और प० स० के शतकाधिकारमें पाठ है-'आउवकस्स पदेसस्स छच्चं मोहस्स णव दु ठाणाणि' । शतकचूणिमे 'अन्ने पढति करके पञ्चसग्रहोक्त पाठभेद को उद्धृत किया है । अत' यह सिद्ध है कि चूर्णिकार पञ्चसंग्रह से परिचित थे। इतना ही नहीं, श० चूमें पञ्चसग्रह से गाथाएँ भी उद्धृत की गई है । गुणस्थानो के वर्णन में (श० गा० ९) नीचे लिखी गाथा उद्धृत है
सद्दहणासद्दहण जस्स जीवस्स होइ तच्चेसु । विरयाविरएण समो सम्मामिच्छोति णादन्वो ॥ यह पचसग्रह के प्रथम अधिकारको १६९वी गाथा है । यदि ये गाथाएँ अन्यत्रसे सगृहीत की गयी हो तब भी उक्त उद्धरणसे तो यह स्पष्ट ही है कि चूर्णिकार के सम्मुख पचसग्रहकारका मत था।
मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिरसे प्रकाशित चूर्णिसहित सित्तरीकी प्रस्तावनामें लिखा है-'परन्तु शतक लघुणिका कर्ता श्रीचन्द्रषिमहत्तर छे एविपेनो उल्लेख खभात श्रीशान्तिनाथजी ताडपत्रीय भडारनी प्रतिना अन्तमा मलता नीचेना उल्लेखना आधारे जाणी शकाय छे--- 'कृतिराचार्य श्रीचन्द्रमहत्तरशिताम्बरस्य 'शतकस्य ग्रन्थस्य' । उसमें उस पत्रका फोटु भी दिया है।
१ 'अन्ने पढति 'आउक्कस्स पदेसस्स छ ति। . अन्ने पढति-'मोहस्स णव उ ठाण्णाणि'।
श० चू० गा० ९३।