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अन्य कर्मसाहित्य : ३१९
सित्तरी प्रकरणकी गाथाओ में वृद्धि होनेका कारण बतलाया है । उसके कर्ताक विषयमें कुछ भी नही कहा । आचार्य मलयगिरिने भी अपनी टीकामें इस विषय में कुछ भी नही लिखा । सित्तरीकी चूर्णिमें भी उसके कर्ताका कोई निर्देश नही है । अत सित्तरी के कर्ताका प्रश्न अभी अनिर्णीत ही है । जैसे गाथा सख्याके आधारपर शतक नाम पड़ा वैसे ही गाथा सख्या के आधारपर इस ग्रन्थका नाम प्राकृतमें सित्तरी है । संस्कृत में उसे सप्ततिका कहते है । मलयगिरि टीकाके अनुसार ग्रन्थकी गाथा संख्या ७२ है । किन्तु चूर्णि सहित प्रकाशित सित्तरीमें गाथा सख्या ७१ है । इस अन्तरका कारण यह है कि मलयगिरि टीकाके अनुसार जिस गाथा - की सख्या २५ है उस गाथाको उक्त चूर्णि सहित सित्तरीमें मूलमें सम्मिलित नही किया है । यद्यपि उस पर भी चूर्णि है । किन्तु गाथाके आगे 'पाठतर' छपा हुआ है और पादटिप्पण में छपा है— 'अन्यकर्ता' का 'चेय गाथा' अर्थात् यह गाथा किसी अन्यके द्वारा रचित हैं । यदि उसे मूलमें सम्मिलित कर लिया जाये तो सित्तरीकी गाथा सख्या ७२ समझनी चाहिये । श्री आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक- मण्डल आगराकी ओरसे प्रकाशित हिन्दी अनुवाद सहित सप्ततिका प्रकरणमें भी गाथा ७२ ही है ।
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इन ७२ गाथाओं के सिवाय दस अन्य भाष्य गाथाएं है जिन पर चूर्णि भी है और टीका भी है । तथा पाँच गाथाएँ और है उनपर भी चूर्णि और टीका है । ये गाथाएँ विवरणात्मक हैं । इनके सिवाय एक गाथा और भी है जो आवश्यक नियुक्ति की है । इससे प्रतीत होता है कि मूल सप्ततिकाके व्याख्यानके लिए चूर्णि - कारके द्वारा ग्रन्थान्तरोंसे कुछ अन्य गाथाएँ भी सम्मिलित की गयी थी और मूल सप्ततिका अन्तर्भाष्य गाथाओं तथा उन अन्य गाथाओंके मिल जानेसे उनकी सख्या ८९ हो गयी । तथा पश्चात् उन सम्मिलित की गयी गाथाओको भी मूलकर्ता - की ही समझ लिया गया । यह बात मलयगिरिकी टीकासे प्रकट होती है । उसमें सम्मिलित की गई किन्ही किन्ही गाथाओ का निर्देश 'तथा चाह सूत्रकृत्' कहकर किया गया है, जो बतलाता है कि मलयगिरि उन्हें मूलकर्ताकी मानते है । किन्तु चूर्णिके अनुसार गाथा न० ६२ और ६३ तथा टीकाके अनुसार गाथा न ६३-६४ की व्याख्या अन्तर्गत आयी तीन गाथाएं दिगम्बरीय सप्ततिकाकी
। इस तरह
सप्ततिकाकी गाथा सख्यामें अन्तर पड गया है ।
१ मूल तथा अन्तर्भाष्य के साथ यह चूर्णि मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोईसे प्रकाशित हो चुकी है।
२ ' सभिन्न पासंतो लोगमलोगं च सव्वभोसव्व । त नत्थि ज न पासइ भूय भव्व भविस्सं च ॥१२७॥ आ० नि० ।