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अन्य कर्मसाहित्य : २९५ मिलान करनेसे यह तो हमे स्पष्ट हो गया कि देवेन्द्रसूरिका उक्त कथन मलघारी जीको टीकाका प्राणी है । किन्तु चं कि वर्तमान कर्मप्रकृतिकी तरह उसकी चूणिमें भी श्रुतज्ञानके बीस भेदोकी चर्चा नहीं है अत. या तो उन्होने उसमें सशोधन करके 'वृहत्कर्म-प्रकृति' कर दिया या 'चूणि' शब्द लेखक वगैरहके प्रमादसे छूट गया । अत हम नहीं कह सकते कि श्री हेमचन्द्रके उक्त उल्लेसका क्या आधार है और उसमें कहां तक तथ्य है। ___यदि वृहत्कर्म-प्रकृतिसे मतलव अग्नायणीय पूर्वके अन्तर्गत कर्मप्रकृति प्राभृतसे है तो उसमें उक्त वीस भेदोका वर्णन अवश्य था, यह वात पट्खण्डागमसे स्पष्ट है पयोकि उसके वेदनासण्डमें श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी वीस प्रकृतियोको बतलाते हुए श्रुतज्ञानके वीस भेदोंका कथन किया है ।
कर्मप्रकृति विपय परिचय
कर्मप्रकृति की पहली पहली गाथामें सिद्धोको नमस्कार करते हुए ग्रन्थकारने आठो कर्मोके आठ करणो तथा उदय और सत्त्वके कथन करनेकी प्रतिज्ञा की है। मत इस ग्रन्थम क्रमसे वन्धनकरण, सक्रमकरण, उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरणाकरण, उपशमनाकरण, निधत्ति, निकचना, उदय और सत्त्व इन दस करणोका कथन है ।
कर्मोके आत्माके साथ वधनेकी क्रियाका नाम वधन-करण है । बन्धके दो कारण है योग और कपाय । अत प्रथम योगका कथन किया है। वीर्यान्तराय कर्मके क्षय अथवा क्षयोपशमसे वीर्यलब्धि होती है उस वीर्यलब्धिसे वीर्य होता । उसे ही योग कहते हैं । उसके द्वारा जीव
औदारिक आदि शरीरोके योग्य पुद्गलोको प्रहण करके उन्हें औदारिक आदि शरीर रूप परिणमाता है । तथा श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनके योग्य पुद्गलो को प्रहण करके उन्हें श्वासोच्छ्वास आदि रूप परिणमाता है । योगका कथन दस अधिकारोके द्वारा किया गया है-अविभागप्रतिच्छेद-प्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, वृद्धिप्ररूपणा, समयप्ररूपणा और अल्पवहुत्व-प्ररूपणा षट्खण्डागमके वेदना खण्डमें बारह अनुयोगद्वारोसे अनुभाग बन्धाध्यवसाय स्थानका कथन करते हुए उक्त कथन कर आये है उक्त दसो अधिकार उसीमें गर्भित है अत उनका यहाँ पुन कथन करने से पिष्टपेषण ही होगा । कसायपाहुडके अनुभागविभक्ति और
१.-पट्ख०, पु० १३, पृ० २६० । २. कर्मप्रकृति, चूर्णि तथा दोनों टीकाओंके साथ है। सन् १९१७ मे जैनधर्म प्रसारक सभा
भावनगर से तथा सन् १९३७ में मुक्तावाई ज्ञान मन्दिर डभोइ (गुजरात)से प्रकाशित ।