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जयधवला - टीका : २८९
होनेसे दोनोका ग्रहण करना चाहिये, ऐसा परिहार पहले ही कर दिया है ।"
गोम्मटसार े कर्मकाण्डके उदय प्रकरणमें नेमिचन्द्राचार्यने भूतवलि तथा यतिवृषभ दोनो आचार्योंके मतसे जो प्रत्येक गुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली कर्म प्रकृतियाँ बतलायी हैं दोनो हो मतोके अनुसार उनमें वज्रनाराच सहनन और नाराच सहननका उदय ग्यारहवें उपशान्तकषाय गुणस्थान तक बतलाया है । अत' पट्खण्डागम और कसायपाहुड दोनोंके मतोसे उक्त दोनो सहनन वाले जीव उपशम श्रेणी चढ सकते है और जव उपशम-श्रेणी चढ सकते है तो दर्शनमोहनीयका क्षपण भी कर सकते है । अत पजिकाकारके द्वारा निर्दिष्ट उक्त मत इन दोनो ग्रन्थोका तो नही जान पडता । यह ग्रन्थान्तर कोई दूसरा ही होना चाहिये । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें यद्यपि उक्त दोनों मत मिलते हैं । किन्तु
हुमान्य मत यही है कि दूसरे तीसरे संहननवाले उपशमश्रेणि नही चढ सकते, दिगम्बर परम्पराको जो मत मान्य है उसका उल्लेख वहाँ मतान्तरके रूपमें किया गया है । किन्तु चन्द्रषिने पञ्चसग्रहकी स्वोपज्ञ टीकामें केवल इसी मतको मान्य किया है कि दूसरे तीसरे सहननवाला उपशमश्रेणि चढ सकता है । उसीके दूसरे टीकाकार मलयगिरि ने ग्रन्थकार चन्द्रविको मान्य मतका निर्देश 'अन्ये' कर के किया है और नही चढनेवालो' के मत को मान्य स्थान दिया है । इसीसे यह प्रकट होता है कि सम्प्रदाय-मान्य मत यही है कि दूसरे तीसरे सहननवाले उप
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१. " पुणोवि अंतिम पत्रस हडणाणि असखेज्ज गुणाणि । कुटो ? दुविह सजमगुणसेढिसीससमहिंयमताणुवधि विसयोजयण गुणसेढिसीसयाणित्ति तिणिवि एगट्ठ काऊण णामकम्मसवधीण अट्ठावीसेण वा तीसेण वा भजिदमेत होदि ति । किमट्ठ दंसणमोहक्खवण गुणसेढीण घेप्पदे ? ण, त खवण (तक्खवण) सत्ती एदेसि संहंडणाण उदयसहिदजीवाण णत्थि त्ति अभिप्पयादो । विदिय-नदियमिदि दोन्ह सहडणाण उवसतकसायगुणसेढि किं ण गहिदा ? ण, दसणमोहक्खवणा सत्तिविरहिदाण उवसमसेढि चडणसत्तीण संभव विरोहो होदित्ति अभिप्पाएण । जदि एव ( तो ) अणतपदिक्कत उदीरणाणपरूवणाए ण मियूणेण ( ? ) च विरोहो किंण भवे ? होदि विरोहो, गथतराभिप्पाएण दोन्ह पि गहण कायन्व इदि पुव्व चैव परिहार दिण्णत्तादो ।" स० प०, पृ० ७९ ।
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२. 'सते वज्ज णारायणाराय' || २६९|| 'गो० क०
३ - 'अण्णे भणति ति सयणो उवसमसेढि पडिवज्ज इत्ति' - सि० चू०, पृ० ४९ । 'अन्ये त्वाचार्या न वते - आधसहननत्रयान्यतमसहननयुक्ता अप्युपशमश्रेणी प्रतिपद्यन्ते ।' सप्त० टी० पृ० २३३ ।
४ 'अपूर्वकरण वादर सूक्ष्मोप शान्तेषु प्रत्येक त्रिंशदुदयो भवति, द्वासप्तति भङ्गा, यतस्तेषु सहननत्रस्यैवोदयः । प०स० स्वो० टी० पृ० ३१८ । अन्ये त्वाचार्या ब्रुवते - आद्यसहननत्रयान्यतम सहनन युक्ता अपि उपशमश्र णिं प्रतिपद्यन्ते, तन्मतेन भङ्गा द्विमप्तति । प० स०टी०, भा० २, पृ० ३२५ ।