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१४ जैनसाहित्यका इतिहास कालीन नही हो सकते । किन्तु जयधवलाकार चूणिसूत्रोके पर्ता आचार्य यतिवृपभको आर्य मंक्षुका शिष्य और नागहस्तीका अन्तेवासी बतलाते है । यद्यपि गाधरणतया शिष्य और अन्तेवासीका एका ही अर्थ माना जाता है तथापि च कि अन्तेवासीका शब्दार्थ 'निकटमे रहनेवाला' भी होता है और उगलिये यतिवपनको नागहस्तीका निकटवर्ती साक्षात् शिष्य गोर भार्थमक्षुका परम्परा शिष्य माना जा सकता है। किन्तु जयधवलाकारका कहना है कि यतिवृपभने उन दोनोके पादमूलमें गुणधर कथित गाथाओके अर्थका श्रवण निाया। अत. दोनो समकालीन होने चाहिये। __ जयधवलाकारके अनुसार गुणधर आचार्य अगज्ञानियोकी परम्परा समाप्त होनेपर वीर नि० सम्वत् ६८३ के बादमे हुए। और श्वेताम्बर मान्यताके अनुसार आर्य मगुका युगप्रधानत्व वीर नि० सम्वत् ४७० में समाप्त हुआ । अत गुणधरका समय मगुसे दो सौ वर्पोसे भी अधिक उत्तरकालीन होनेमे गुणधरकी गाथाएँ आर्य मगुको प्राप्त नही हो सकती । रहे नागहस्ती । सो यदि मुनि कल्याणविजयजीके मतानुसार आर्य मगु और नागहस्तीके मध्यमे १५० वर्पोका अन्तर मान लिया जाता है तो वीर नि० स० ६२० में उन्हें पट्टासीन होना चाहिए । श्वेताम्बर परम्परामें उनका युगप्रधातकाल ६१ वर्प माना जाता है । अत उनका समय वी० नि० ६८९ तक जाता है । यदि गुणवराचार्यको वीर नि०स० ६८३ के लगभगका सानकर सीधे गुणधरसे ही नागहस्तीको कसायपाहुडकी प्राप्ति हुई मान ली जाये, जैसा कि इन्द्रनन्दिका मत है, तो गुणधर और नागहस्तीका पीर्वापर्य बैठ जाता है, किन्तु एक दूसरी वाधा उपस्थित होती है
जयधवलाकार और इन्द्रनन्दि दोनोका कहना है कि आर्यमा और नागहस्तीके पास कसायपाहुडके गाथासूत्रोका अध्ययन करके यतिवृपभ आचार्यने उनपर चूर्णिसूत्र रचे । वर्तमान त्रिलोकप्रज्ञप्तिके आधारपर यतिवृपभका समय वी० नि० स० १०००के आस-पास होता है। अत उक्त प्रकारसे गुणधर और नागहस्तीका पौर्वापर्य वैठ जानेपर भी नागहस्ती और यतिवृपभका गुरु-शिष्यभाव नही बनता, नागहस्तीके दूसरे साथी आर्य मगुको तो पहले ही छोडा जा चुका है।
यहां यह भी स्पष्ट कर देना उचित होगा कि स्वय यतिवृपभने आर्य मंक्षु या नागहस्तीका कोई निर्देश नहीं किया। उनके चूणिसूत्रोमे किसी आचार्य का सकेत तक नही है । त्रिलोकप्रज्ञप्तिके अन्तमें एक गाथामे गुणधरका नाम होनेकी सम्भावना अवश्य है। अपने चूर्णिसूत्रोमे वे पवाइज्जमाण और अपवाइज्जमाण १. 'जो अज्जमखुसीसो अतेवासी वि णागहत्यिस्स । ___ सो वित्तिसत्तकत्ता जइवसहो मे वर देऊ ॥८॥'
-क० पा०, भा० १०, १४ ।
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