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२८४ : जैनसाहित्यका इतिहास अनेक स्थलोपर कहा है । एक स्थानपर ऐसा भी लिखा है कि 'आचार्य परम्परा से आगत सूत्रसे अविरुद्ध व्याख्यानसे ऐसा जाना ।' सत्कर्मपजिका
धवलागत षट्खण्डागमके अतिम खंड सत्कर्मपर एक पजिका है जिसका पूरा नाम सत्कर्म-पजिका । यह पंजिका मूडविद्रीके उसी सिद्धान्तवसति मन्दिरके शास्त्र भण्डारसे प्राप्त हुई है, जिससे धवला, जयधवला और महावधको ताडपत्रीय प्रतियाँ उपलब्ध हो सकी । वहाँ महावन्धकी जो ताडपत्रीय प्रति है उसके प्रारम्भके २७ पत्र इसी सत्कर्म पंजिकाके है । यह पजिका सत्कर्मके अन्तर्गत अट्टारह, अनुयोगद्वारोमें से केवल आदिके चार ही अनुयोगद्वारो पर है। चौथे उदय अनुयोग द्वारके अन्तमें 'समाप्तोयमुद्ग्रन्थ' ऐसा लिखा है । फिर कन्नडी पद्योमें एक छोटी सी प्रशस्ति है।
यह पजिका किसने कब रची थी इसका कोई सकेत अभी तक प्राप्त नही हो। सका । यह भी ज्ञात करनेका कोई साधन नही मिला कि रचयिताने इतना ही। अश रचा था या पूरे सत्कर्मपर अपनी पजिका-वृत्ति रची थी।
पजिकाके आदिमें जो गाथा है उसका भी केवल उत्तरार्द्ध ही प्राप्त हो । सका है
'वोच्छामि संतकम्मे पंचि ( जि ) यरूवेण विवरण सुमहत्थ ॥१॥'
इसमें सत्कर्मपर पजिका रूपसे 'सुमहथं' विवरण लिखनेकी प्रतिज्ञाकी गयी है। यहाँ विवरणका 'समुहत्थ" विशेषण उल्लेखनीय है। सप्ततिका की प्रथम गाथामें भी सप्तप्तिकाकारने सिद्धयएहि महत्थ' लिखकर अपनी कृतिको 'महार्थ' बतलाया है । और चूर्णिकारने महार्थका अर्थ-'निपुर्ण, गम्भीरं दुरवगाह पयत्थ वित्थार विसय किया है । अर्थात् जिसमें दु.खसे अवगाहित करने योग्य पदार्थोका विस्तार हो उसे महत्थ या महार्थ कहते है ।
चन्द्रषिने भी अपने पञ्चसग्रहकी प्रथम गाथाके उत्तरार्धमें उसे 'महत्थ' कहा है और उसका अर्थ किया है-'जिसमें महान् अर्थ हो उसे महार्थ कहते है।' उक्त गाथाशसे चन्द्रर्षिकी गाथाका उत्तरार्ध मेल खाता है
'वोच्छामि पचसग्रहमेय महत्थ जहत्यं च ॥१॥' अत. पजिकाकारने जो अपने पजिकारूप विवरणको 'महार्थ' ही नही सुमहार्थ
'कुदो णव्वदे ? आइरियपरपरा गय सुत्ताविरुद्धवक्खाणादो'-पु १३, पृ ३१० । २ इसका उपलब्ध भाग पट्खण्डागमके १५ के खण्डके साथ उकके अन्तमे मुद्रित हो
गया है।