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२७२ . जैनसाहित्यका इतिहास ( षट्खण्ड० ) में असंख्यात उत्साणी-अवसर्पिणी प्रमाण वादर स्थिति कही है। अर्थात् परिकर्ममें जो बादरस्थिति कही है, वह पृथिवीकायिक, आदि प्रत्येक बादरकायिक जीवकी है और जीवट्ठाण के कालानुगम अनुयोगद्वारके सूत्र ११२ में जो वादर स्थिति, कही है वह वादर एकेन्द्रिय सामान्यकी उत्कृष्ट स्थिति है अस्तु । किन्तु धवलामें ही परिकर्मको लेकर एक चर्चा और भी है जो इस प्रकार है___ 'जत्तियाणि दीवसागर रूवाणि जबूदीवछेदणाणि च रुवाहियाणि तत्तियाणि रज्जुछेदणाणि' त्ति परियम्णण एद वक्खाण किण्ण विरुज्झदे ? एदेण सह विरुज्झदि, किंतु सुत्तेण सद्दण विरुज्झदि । तेणेदस्स वक्खाणस्स गहण कायम ण परियम्मस्स, तस्स सुत्तविरुद्धत्तादो । ण सुत्त विरुद्ध वक्खणं होदि, अइप्पसग्गादो ।'-पु० ४, पृ० १५६ ।
शका-'जितनी द्वीप और सागरोकी संख्या है - तथा जितने जम्बूद्वीपके अर्धच्छेद होते है, एक अधिक उतने ही राजुके अर्धच्छेद होते है' इस परिकर्मके साथ यह उपर्युक्त व्याख्यान क्यो नही विरोधको प्राप्त होता? __समाधान-भले ही परिकमके साथ उक्त व्याख्यान विरोधको प्राप्त होता हो, किन्तु प्रस्तुत सूत्रके साथ विरोधको प्राप्त नहीं होता। इस कारणसे इस व्याख्यानको स्वीकार करना चाहिए, परिकर्मको नही, क्योकि परिकर्मका व्याख्यान सूत्रविरुद्ध है। और जो व्याख्यान सूत्र विरुद्ध हो उसे व्याख्यान नही माना जा सकता, अन्यथा अतिप्रसंग दोष आता है।'
उक्त उद्धरणमें परिकमको जो सूत्र विरुद्ध व्याख्यान कहा है । इससे भी उसके षट्खण्डागम सूत्रोके व्याख्यान रूप होनेका हो समर्थन होता है । प्रश्न केवल सूत्र विरुद्धताका रह जाता है। किन्तु जीवट्ठाणके ही द्रव्य प्रमाणानुगमकी धवलामें उक्त सूत्र विरुद्धताका परिहार भी किया है । लिखा है- ण च एद वक्खाण जत्तियाणि दीवसागररूवाणि जबूदीवच्छेदणाणि च ख्वाहियाणि त्ति परियम्म सुत्तेण सह विरुज्झइ, ख्वेण अहियाणि रूवाहियाणि ति गहुणादो।'-पु० ३, पृ० ३६ । ___ 'और यह व्याख्यान 'जितने द्वीपो और सागरोंकी सख्या है और जम्बूद्वीपके रूपाधिक जितने अर्धच्छेद है' इस परिकर्म सूत्रके साथ भी विरोधको प्राप्त नही होता क्योकि वहाँ 'रूपाधिकका' अर्थ रूपसे अधिक रूपाधिक नही लिया किन्तु रूपोसे अधिक रूपाधिक लिया है।'
उक्त उद्धरणोसे जो तथ्य प्रकाशमें आते है उनसे यही प्रमाणित होता है कि परिकर्मकी उत्पत्ति पट्खण्डगमके सूत्रोसे ही हुई थी और वह बहुत करके उनका व्याख्यात्मक ग्रन्थ होते हुए भी केवल व्याख्यारूप नही था । तथा 'सर्वाचार्य