________________
२७० : जैनसाहित्यका इतिहास खुद्दावन्धके कालानुगम अनुयोग द्वारमें वादर पृथिवी-कायिक आदि जीवोंकी उत्कृष्ट ? स्थिति बतलानेके लिए एक सूत्र आता है-'उक्कस्सेण कम्मदिदी ॥७७॥ अर्थात् अधिक से अधिक से अधिक कर्मस्थिति प्रमाण काल तक जीव वादर पृथिवी-कायिक, आदिमें रहता है। ___इस सूत्रको धवलामें लिया है-'सूनमे जो 'कम्मदिदी' शब्द आया है उससे सत्तर कोडा-कोडी सागरोपम मात्र कालका ग्रहण करना चाहिये। फिर लिखा है-'के वि आइरिया सत्तरि सागरो इम कोडाकोडिमावलियाए असखेज्जदि भागेण गुणिदे वादर पुढवि कायादीण कायट्टिदी होदित्ति भणति । तोसि कम्मट्ठिदि ववएसो कज्जे कारणोवयरादो। एद वक्खाणमत्यित्ति कधं णव्वेदं ? कम्मद्विदिमावालियाए असखेज्जदि भागेण गुणिदे वादरहिदि होदि ति परियम्म वयणण्ण्हाणुववत्तीदो । तत्थ सामपणे वादरट्ठिदी होदि तिज वि उत्त तो वि पुढविकायदीणं वादराण पत्तेयकादिदी घेत्तन्वा, असखेज्जाखेज्जामो ओस प्पिणी-उस्सप्पिणीओति सुत्तम्मि बादहिदि परूवणादो।"-~-पु० ७, पृ० १४५ ।
'किन्ही आचार्योका ऐसा कहना है कि सत्तर सागरोपम कोडा-कोडीको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणा करने पर चादर पृथिवीकायिक आदि जीवोकी कायस्थितिका प्रमाण होता है। किन्तु उनकी कर्मस्थिति यह सज्ञा कार्यमें कारणके उपचारसे ही सिद्ध होती है।
शङ्का-ऐसा व्याख्यान है यह कैसे जाना ?
समाधान-कर्मस्थितिको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर वादर स्थिति होती है, परिकर्मके ऐसे वचनको अन्यथा उपपत्ति बन नही सकती है । वहाँ पर ( परिकर्म में ) यद्यपि सामान्यसे 'वादर स्थिति होती है, ऐसा कहा है तो भी प्रत्येक वादर पृथिकायादिकी काय स्थिति ग्रहण करना चाहिये, क्योकि सूत्रमें (षट्ख० ) वादर स्थितिका कथन असंख्यात अवपिणी-उत्सर्पिणी प्रमाण किया है।'
इस उद्धरणमें जो खुद्दाबन्धके ७७वें सूत्रके विषयमें यह शका की गयी है कि ऐसा व्याख्यान है यह कैसे जाना और उसके समाधानमें जो यह कहा है कि यदि ऐसा व्याख्यान न होता तो परिकर्मका इस प्रकारका कथन नही बन सकता था उससे प्रकृत विषय पर थोडा विशेष प्रकाश पडता है। और ऐसा प्रतीत होता है कि परिकर्म सूत्रोंके व्याख्यानसे सम्बन्ध अवश्य था।
उक्त चर्चा जीवट्ठाणके कालानुगमकी धवला टीकामें प्रकारान्तरसे आई है उसमे लिखा है
'के वि आइरिया कम्मदिदीदो वादरद्विदी परियम्मे उप्पण्णा ति कज्जे कारणोवयार-मवलंबिय वादरट्ठिदौए चेय कम्मदिदि सण्णमिच्छति, तन्न घटते,