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२५० : जैनसाहित्यका इतिहास उसकी कोई टीका टिप्पणी लिखी गई। समाप्तिसूचक 'समाणिथा' पाठ तो उससे पूर्वकी गाथा में ही आ चुका है । अत' यह समस्या उलझी हुई है। रचनाए
वीरसेन स्वामीने सपूर्ण धवला और जयधवलाका पूर्वभाग रचा था। ये दोनो ग्रन्थ उपलब्ध है । पट्खण्डागम सूत्रोके साथ हिन्दी अनुवाद सहित धवलाटीका १६ भागोमें छपकर प्रकाशित हो गई है तथा कपायपाहुड और चूणिसूत्रो के साथ हिन्दी अनुवाद सहित जयधवलाकार प्रकाशन कार्य चालू है । जयधवलाम एक जगह श्रीवीरसेन स्वामीने स्वलिखित उच्चारणावृत्तिका भी निर्देश किया है। यदि वहाँ लिखितसे उनका आशय रचितसे है तो कहना होगा कि उन्होने यतिवृपभके चूर्णिसूत्रोपर उच्चारणावनि भी रची थी।
उत्तरपुराणको प्रशस्तिमें गुणभद्राचार्यने उनकी एक अन्य रचनाका निर्देश किया है उसका नाम प्रेमीजीने सिद्धभूपद्धति टीका दिया है और लिखा है कि नामपरसे ऐसा अनुमान होता है कि यह क्षेत्रगणित सम्वन्धी अन्य होगा। किन्तु गुणभद्रके उत्तरपुराणका जो सस्करण ज्ञानपीठसे प्रकाशित हुआ है उसमें 'सिद्धिभूपद्धति' पाठ है शोर श्लोकके भावको देखते हुए यही पाठ ठीक प्रतीत होता है। श्लोक इसप्रकार है
सिद्धिभूपद्धति यस्य टीका सविक्ष्य भिक्षुभिः ।
टीक्यते हेलयाऽन्येषा विपमादि पदे पदे ॥६॥-उ पु प्र अर्थ-दूसरोकेलिए पद-पदपर विषम भी सिद्धिभूपद्धति, जिसकी टीकाको देखकर भिक्षुओके द्वारा सरलतासे प्रवेश योग्य हो गई।
उक्त कथन श्लेषात्मक है । जो सिद्धिभू-मोक्षभूमिको पद्धति-मार्ग दूसरोके लिए पद-पदपर विषम है वह भिक्षुओके लिए सुगम है । इसपरसे ज्ञात होता है कि सिद्धिभूपद्धति नामक ग्रन्थ वडा कठिन था, जो वीरसेनको टीकासे सरल हो गया तथा उसमें मोक्षमार्गका विवेचन था।
इस ग्रन्थके सम्बन्धमें उक्त उल्लेखके सिवाय अन्य कोई उल्लेख नही मिलता । फिर भी यह स्पष्ट है कि उक्त ग्रन्थ तथा उसकी टीका दोनो ही बहुत महत्त्वपूर्ण थे। ___ इस तरह वीरसेनस्वामीने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण टीका-ग्रन्थोकी रचना प्राकृत१. प्रकाशक श्रीमन्त सेठ शितावराय लक्ष्मीचन्द, भेलसा (म प्र.)। २. भारतीय दिगम्बर जैन सघ, चौरासी, मथुससे प्रकाशित । ३ 'अम्हेहि लिहिदच्चारणाए पुण 1-क पा , भा.३, पृ. ३९८ । ४ जै. साइ,२ रा.स.,,१३१ ।।
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