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धवला - टीका • २४५
अन्य दर्शनोके ग्रन्थोमेंसे वौद्धकवि अश्वघोषके सौदरानन्दकाव्य, धर्मकीर्ति प्रमाणवार्तिक, ईश्वरकृष्णकी साख्यकारिका और कुमरिलभट्टके मीमासाश्लोकवार्तिकसे भी एक दो उद्धरण दिये गये है ।
जयधवलामें' पाहुडशब्दको व्युत्पत्तिके प्रसगसे कई प्राकृत गाथाएं उद्धृत की है जो प्राकृतव्याकरणके नियमोसे सम्बद्ध है । उसपर से ऐसा अनुमान होता है कि सम्भवतया प्राकृतभाषाका कोई गाथावद्ध व्याकरण भी था । धवला ओर जयधवलाके प्रथम भागमे भगवान महावीरके जीवनसे सम्बद्ध अनेक प्राकृत गाथाए उद्धत की है जिनपरसे अनुमान होता है कि प्राकृतगाथाओ में भगवान् महावीरका कोई सुन्दर चरितान्य अवश्य था ।
समय-विमर्श
वोरसेनस्वामीने अपनी धवला - टीकाके अन्तमें उसकी समाप्तिका काल दिया है । किन्तु गाथाओके अशुद्ध होनेसे उनमें दिये हुए काल के सम्वन्धमें विवाद है । अत उसे छोडकर जयधवलाकी अन्तिम प्रशस्ति में दिये गये कालको लेना उचित होगा । उसमे बतलाया है कि कसायपाहुडकी टीका जयघवला श्रीमान् गुर्जराके द्वारा पालित वाटकग्रामपुरमें राजा अमोघवर्षके राज्यकालमें फाल्गुन शुक्ला दशमी के पूर्वाह्न में, जबकि नन्दीश्वर महोत्सव मनाया जा रहा था, शकराजाके सात सी उनसठ वर्ष ( ७५९ ) वीतने पर समाप्त हुई । इससे स्पष्ट है कि शकसवत् ७५९, विक्रम सवत् ८९४ ओर ईस्वी सन् ८३७ के फाल्गुन मासकी सुदी दशमीको जयधवला समाप्त हुई थी ।
वीरसेन स्वामीने जयघवलाका केवल पूर्वार्ध ही रचा था, यह बात जयधवलाकी प्रशस्तिसे ३ प्रकट होती है । उसमें जिनसेनने लिखा है कि गुरुके द्वारा निर्मित पूर्वभागको देखकर मैंने उत्तर भागको रचा। यदि वीरसेन जीवित होते तो ऐसा प्रसग उपस्थित न होता । इसके सिवाय प्रशस्ति में वीरसेनके लिए
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क. पा., भा. १, पृ. ३२६-३२७ २ इति श्रीवीरसेनीया टीका सूत्रार्थदर्शिनी । वाटग्रामपुरे श्रीमद्गुर्जरार्यानुपलिते ॥ ६ ॥ फाल्गुने मासि पूर्वान्हे दशम्या शुक्लपक्षके । प्रवर्धमानपूजोरुनन्दीश्वरमहोत्सवे ॥ ७ ॥ अमोघवर्पराजेन्द्रराज्यप्राज्यगुणोदय ।
निष्ठिता प्रचयं यायादाकल्पान्तमनल्पिका ॥ ८ ॥ एकोन्नपष्ठिसमधिकसप्तशताब्देषु शकनरेन्द्रस्य ।
समतीतेषु समाप्ता जयधवला प्राभृतव्याख्या ॥ ११ ॥
३. गुरुणार्थेऽग्रिमे भूरिवक्तव्ये सप्रकाशिते । तन्निरीक्ष्याल्पवक्तव्य. पश्चार्धस्तेन पूरित. ॥३६॥