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धवला-टीका • २३९
तरह अनुभाग और प्रदेशमें भी जानना चाहिये । ह्रस्वमें उससे विपरीत समझना चाहिये । अर्थात् एक-एक प्रकृतिका बन्ध करनेवालेके प्रकृतिह्रस्व है और उससे अधिकका वन्ध करनेवालेके नोप्रकृतिह्रस्व है। इस प्रकार दीर्घ और ह्रस्वका कथन किया है।
१८. भवधारणीय-भवके तीन भेद बतलाये हैं-ओघ भव, आदेस भव और भवग्रहण भव । उनमेंसे इस अनुयोगद्वारमें भवग्रहण भवका कथन कुछ पक्तियोमें किया है । भुज्यमान आयुको निर्जीण करके जिसके नवीन आयु कर्मका उदय हुआ है उस जीवके प्रथम समयमें होनेवाले परिणामको अथवा पुराने शरीरको त्यागकर नया शरीर धारण करनेको भवग्रहण भव कहते है । भवका धारण केवल आयुकर्मके द्वारा होता है । अन्य कर्मोका यह काम नहीं है ।
१९. पोग्गल अत्त-(पुद्गलात्त)-'आत्त' का अर्थ है 'गृहीत' । अत गृहीत पुद्गलोको 'पुद्गलात्त' कहा है । वे पुद्गल छै प्रकारसे गृहीत किये जाते है-ग्रहणसे, परिणामसे, उपभोगसे माहारसे, ममत्वसे और परिग्रहसे । हाथ अथवा पैरसे जो पुद्गल ग्रहण किये जाते है वे ग्रहणसे आत्त पुद्गल है । मिथ्यात्व आदि परिणामोसे गृहीत पुद्गल परिणामसे आत्त पुद्गल है। उपभोग रूपसे अपनाये गये सुगध, ताम्बूल आदि पुद्गल उपभोगसे आत्त पुद्गल है । खान-पानके द्वारा अपनाये गये पुद्गल आहारसे आत्त पुद्गल है। अनुरागसे गृहीत पुद्गल ममत्वसे आत्त पुद्गल है । और आत्माधीन जो पुद्गल है वे परिग्रहसे आत्त पुद्गल है । यही इसमें कथन है।
२० निधत्त-अनिधत्त-जो प्रदेशाग्र उदय, सक्रमके अयोग्य है किन्तु उत्कर्पण और अपकर्षणके योग्य होता है उसको निधत्त कहते है । शेपको अनिधत्त कहते है । कहाँ किस कर्मसे प्रदेशाग्र निधत्त और अनिधत्त है, इसका कथन कुछ पक्तियोके द्वारा किया है।
२१ निकाचित-अनिकाचित-जो प्रदेशाग्न उत्कर्पण, अपकर्पण, सक्रम और उदयके अयोग्य होता है उसे अनिकाचित और शेषको निकाचित कहते हैं । इसीका कथन इस अनुयोगद्वारमें कुछ पक्तियोके द्वारा किया है।
२२ कर्मस्थिति-इस अनुयोग द्वारमें कर्मस्थितिके लक्षणमें नागहस्ती और आर्यमाका' मतभेद बतलाया है। नागहस्ती क्षमाश्रमणके मतसे जघन्य ___ कम्मठिदि त्ति अणियोगद्दारम्हि भण्णमाणे वे उवदेसा होति-जहण्णुक्कस्सटिठदीण
पमाणपरूवणा कम्मठिदिपरूवणे ति णागहत्थिखमासमणा भणति। अज्जमखुखमासमणा पुण कम्मठिदिसंचिदसतकम्मपरूवणा कम्मठिदिपरूवणे त्ति भणति । एव दोहि उवऐसेहि कम्मठिदिपरूवणा कायन्वा। एव कम्मछिदि त्ति समतमणिमोगद्दार ।-पटख०, पु० १६, पृ० ५१८ ।