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२१० · जेनसाहित्यका इतिहास चूर्णिसूत्रोको विषयवस्तु
आचार्य गुणधररचित गाथासूनोपर भाचार्य यतिवृपभने चूणिगूत्रोकी रचना की है। अत चूणिसूतोका भी मुख्य प्रतिपात्र विपय वही है, जो कमायपाहुडका है। किन्तु गाचार्य गुणधरने अपने पृच्छात्मक गायारायोमें जो जिज्ञासाए मान व्यक्त की थी या जिन विपयोकी सूचनागान की थी उन गवको चूणिसूनकाग्ने भी सक्षेपमे ही कहनेका प्रयत्न किया है। उदाहरणके लिए आचार्य गुणधरने एकमात्र गाथा ( २२ ) के द्वारा आदिो चार अधिकारीका निर्देगमात्र किया है। किन्तु यतिवृपभने उस एक गाथाना अवलम्बन लेकर चारो अधिकागेका कथन किया है। सबसे प्रथम उन्होने गाथाका पदच्छेद किया है-'पयडीए मोहणिज्जा विहत्ति' इस पदमे प्रातिविभक्ति नामका पहला अधिकार है । 'तह द्विदी' से स्थितिविभक्ति दूसरा अर्थाधिकार है। 'अणुभागे' मे अनुभागविभक्ति तीसरा अर्थाधिकार है। 'उक्करगमणुपास्स'से प्रदेश विभक्ति चतुर्य अर्थाधिकार है। 'शीणाझीण' पाचर्या अर्थाधिकार है गौर "स्थित्यन्तक' छठा है। प्रकृतिविभक्तिके दो भेद है-मूलप्रकृतिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिविभक्ति । मूलप्रकृतिविभक्तिके आठ अनुयोगद्वार है--म्यामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोकी अपेक्षा भगविचय, काल, अन्तर, भागाभाग, अल्पवहुत्व । इन अनुयोगद्वारोका कथन करनेपर मूलप्रकृतिविभक्ति समाप्त होती है । इसके पश्चात् उत्तरप्रकृतिविभक्ति दो प्रकारको है.-एकउत्तरप्रकृतिविभक्ति और प्रकृतिस्थानउत्तरप्रकृतिविभक्ति। उनमेंसे एककउत्तर प्रकृतिविभक्तिके ये अनुयोगद्वार है-एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोकी अपेक्षा भगविचयानुगम, परिमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, सन्निकर्ष और अल्पवहुत्व । इन अनुयोगद्वारोके कहने पर एकैकउत्तरप्रकृतिविभक्ति समाप्त होती है ।
इस तरह चूर्णिसूत्रकारने गुणधराचार्यके द्वारा सूचित आद्य अधिकारोका विवेचन किया है। उक्त अनुयोगद्वार आगमिक परम्पराकी देन है। उनके द्वारा किसी भी वर्ण्य वस्तुका विवेचन करनेसे उसके विपयमें पूरी जानकारी प्राप्त हो जाती है।
प्रथम गाथाका व्याख्यान करते हुए चूर्णिसूत्रकारने पाँच उपक्रमोका निर्देश किया है-आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार । आनुपूर्वी तीन प्रकारकी है। नामके छह भेद, प्रमाणके सात भेद, वक्तव्यताके तीन भेद और अर्थाधिकार केपन्द्रह भेद है ।
तिलोयपण्णत्तिके प्रारम्भमें कहा है