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चूर्णिसूत्र साहित्य : २०७
कसायपाहुडके चारित्रमोहोपशामना नामक अधिकारमें यतिवृपभने उपशामनाके दो भेद किये है-एक करणोपशामना और दूसरा अकरणोपशामना । तथा करणोपशामनाके भी दो भेद किये है देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना ।
और लिखा है कि अकरणोपशामनाका कथन कर्मप्रवादमें और देशकरणोपशामनाका कथन कर्मप्रकृतिमें है। कर्मप्रवाद आठवे पूर्वका नाम है और कर्मप्रकृति दूसरे पूर्वके पञ्चम वस्तु-अधिकारके अन्तर्गत चतुर्थ प्राभृतका नाम है। अब प्रश्न यह होता है कि यतिवृषभने इन दोनो ग्रन्योका निर्देश स्वय उन्हें देखकर किया है या अन्य किसी आधारपर किया है ? दिगम्बर उल्लेखोके अनुसार पूर्वोका ज्ञान तो वीर निर्वाणसे ३४५ वर्ष पर्यन्त ही प्रचलित रहा है। उसके पश्चात् तो विशकलित ज्ञान ही रह गया था । श्वेताम्वर उल्लेखोंके अनुसार वीरनिर्वाणसे लगभग छ सौ वर्ष पश्चात् स्वर्गगत हुए आर्यरक्षितसूरि साढे नौ पूर्वोक ज्ञाता थे। उन्हीके वंशज नागहस्ती थे। वे आठवें कर्मप्रवादके ज्ञाता हो सकते है। नन्दिसूत्रमै उन्हें कर्मप्रकृतिमें प्रधान तो बतलाया ही है । इसलिए उनके द्वारा यतिवृपभको कर्मप्रवाद और कर्मप्रकृति दोनोका अनुगम होना शक्य है। इन्ही दो का निर्देश चूर्णिसूत्रोमें पाया जाता है। अतएव चूर्णिसूत्रकार यतिवृपभ आर्यमगुके न सही तो कम-से-कम नागहस्तीके तो लघु समकालीन होने ही चाहिये । विवध श्रीधरके श्रुतावतारमें आर्यमगुका नाम नही है । गुणधरने नागहस्तीको कसायपाहुडके सूत्रोका व्याख्यान किया। और गुणघर नागहस्तिके पास यतिवृषभने उनका अध्ययन किया। इसमें गुणधरके पास अध्ययन करने वाली बातका समर्थन अन्यत्रसे नही होता, अत उसे छोड देने पर भी नागहस्तीके समीप अध्ययन करनेकी ही बात पुष्ट होती है । एक अन्य बात यह भी है कि त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी उपलब्ध प्रतिमें हम बहुत-सी ऐसी गाथाए पाते है जो कुन्दकुन्दके ग्रन्थोमें पाई जाती है और उनसे ली गई प्रतीत होती है। यद्यपि इससे यतिवृषभकी प्राचीनताको विशेप क्षति नही पहुँचती, क्योकि कुन्दकुन्दका समय ईसाकी प्रथम शताब्दी माना गया है तथापि यतिवृपभमें यदि इस प्रकारका संग्रह करनेकी प्रवृत्ति होती तो उसका कुछ आभास उनके चूर्णिसूत्रोमें भी परिलक्षित होता। अत हमारा अनुमान है कि इन प्राचीन गाथाओका कोई एक मूलस्रोत रहा है, जहाँसे कुन्दकुन्द और यतिवृषभ दोनोने ही उन गाथाओको ग्रहण किया होगा। दूसरे, धरसेनने महाकर्मप्रकृतिप्राभूतके विच्छेदके भयसे ही भूतबलि-पुष्पदन्तको उसका ज्ञान दिया था। उन्होने उसके आधारपर षट्खण्डागमकी रचना की और इस तरह महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका ज्ञान उनके साथ समाप्त हो गया। तब यतिवृषभको कर्मप्रकृतिका १. त्रि भा २ की प्रस्तावना तथा अनेकान्त वर्ष २, पृ. ३ । ।