________________
२०० जेनसाहित्यका इतिहास
शका - सूनोमे विरोध कैसे हो सकता है ?
समाधान - अल्पश्रुतके धारक आचार्योंके द्वारा रचे गये सूत्रो व उपसहारोम विरोधका होना सम्भव प्रतीत होता है ।
शका - उपसहारोको सूत्रपना कैसे सम्भव है ?
समाधान-घट, घटी, सकोरा आदिमं रसे हुए अमृतसागरके जलमें अमृतत्व पाया हो जाता है ।
इस प्रकार पट्सण्डागम और कसायपाहुडचूर्णिसूत्र दो भिन्न आचार्य - परम्पराओके उत्तराधिकारी प्रतीत होते है । इसीसे उनके कतिपय सैद्धान्तिक मन्तव्यो मतभेद है |
अनुयोगद्वार और चूर्णिसूत्र
अनुयोगद्वारसूत्र स्वतंत्र ग्रन्थ है, व्याख्याग्रन्थ नही है, किन्तु चूर्णिसूत्र व्याख्यासूत्र है । अनुयोगद्वारमें जिस आगमिक शैलीका दर्शन मिलता है, चूर्णिसूत्र में भी उसी आगमिक शैलीका दर्शन होता है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि प्राचीन आगमिक व्याख्या -शैली वही थी जो इन दोनो सूत्रप्रन्योमें पाई जाती है ।
अनुयोगद्वारसूत्रको परम्परासे आर्यरक्षितकी कृति माना जाता है । पट्टावलियोके अनुसार आर्यरक्षित आर्यमक्षु और नागहस्तीके मध्य में हुए थे । अत उनका समय ' विक्रमकी प्रथम शतीका उत्तरार्ध माना जाता है । इस हिसावसे अनुयोगद्वारसूत्र चूर्णिसूत्रोका पूर्वज सिद्ध होता है । किन्तु उसको देखनेसे उसकी प्राचीनतामें सन्देह होता है । 'नन्दिसूत्रमें अनुयोगद्वारका नाम आया है । और नन्दिसूत्र वलभी वाचनाके समय अर्थात् विक्रमकी छठी शताब्दीके प्रारम्भमें रचा गया माना जाता है । नन्दिमें मिथ्याश्रुत और अनुयोगमें लौकिकश्रुतके नामसे अनेक ग्रन्थोके नाम दिये है । उनमें माठर और पष्ठितत्रका भी नाम है । ईश्वरकृष्णकी साख्यकारिकापर माठरकी कृति प्रसिद्ध है तथा "अनुयोगद्वारमे लौकिक भावावश्यकका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है- पूर्वाहमें भारतका और अपराण्हमें रामायणका वाचन अथवा श्रवण करना है यह लौकिक भावावश्यक है ।
१ 'श्रीमदार्थ रक्षितसूरि सप्तनवत्यधिकपचशत ५९७ वर्षान्ते स्वर्गभणिति पट्टावल्यादौ दृश्यते । प० स०, पृ० ४८ ।
२. से किं तं लोइय भावावस्सय ? पुन्वण्हे भारह अवरण्हे रामायण, से त लोइयं भावा
वस्य ( सू० २५ I
३ क० पा० भा० १, पृ०
I
४ ' जण्ण कट्ठकम्मे वा पोत्थकम्मे वा चित्तकम्मे वा लेप्पकम्मे वा
(सू० १०) अ० ।