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श्रुतावतार ५ जैनोका आगमिक साहित्य अपने प्राचीनतम रूपमें हम तक नहीं आ सका दुर्भाग्यसे उसके कुछ भाग ही सुरक्षित रह सके और उनका वर्तमान रूप अपेक्षाकृत काफी अर्वाचीन है।)
डा० भण्डारकरने' दिगम्बर परम्परके कथनको विश्वस्त मानते हुए यह मत प्रकट किया था कि 'वीरनिर्वाणके पश्चात् ६८३ वर्ष पर्यन्त, ( ई० १३६ ) जब कि अगोके अन्तिम ज्ञाता आचार्यका स्वर्गवास हुआ, जैनोमे कोई लिखित आगम नही था'।
सम्भवतया यह वात वारह अगोके सम्बन्धमें कही गई है, क्योकि उनका लेखनकार्य श्वेताम्बर मान्यताके अनुसार वीरनिर्वाणसे ९८० या ९९३ वर्ष पश्चात् हुआ था।
किन्तु डा० विन्टरनीट्सका मत है कि उक्त द्वादशागरूप आगमसाहित्यसे Vइतर आगमिक जैन साहित्यकी रचना श्वेताम्बरीय आगम-सकलनासे बहुत पहले ही प्रारम्भ हो गई थी, जैसा कि हमें आगे ज्ञात हो सकेगा। ___ सब बातोको दृष्टिमें रखते हुए जैन साहित्यके विकासका इतिहास प्रथम शताब्दी ईस्वीपूर्वसे आरम्भ होकर वर्तमानकाल तक आता है । इस सुदीर्घ कालको पाँचसौ-पाँचसौ वर्पोमें विभाजित करनेसे निम्न प्रकारसे उसका विभाग होगा
~१. ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दीसे ईस्वी सन्की चतुर्य शताब्दीके अन्ततक । V३, ईस्वी सन्की पाचवी शताब्दीके प्रारम्भसे ईस्वी सन्की नौवी शताब्दीके
अन्ततक । ३ ईस्वी सन्की दसवी शताब्दीके प्रारम्भमें १४वी शताब्दीके अन्ततक । /४ और ईस्वी सन् १५ वी शताब्दीके प्रारम्भसे १९ वी शताब्दीके अन्ततक ।
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श्रुतावतार अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर स्वामीने केवलज्ञान होनेके पश्चात् राजगृह नगरके निकट विपुल नामक पर्वतपर श्रावण कृष्णा प्रतिपदाके दिन ब्राह्म मुहू' में अपनी प्रथम धर्मदेशना दी। उनके प्रधान गणधर इन्द्रभूति गौतमने उसे
वारह अगो और चौदह पूर्वोमे निवद्ध किया। इस श्रुतके अर्थकर्ता भगवान महावीर थे और ग्रन्थकर्ता गौतम गणधर । गौतम गणधरसे वह श्रुत लोहाचार्य अपर नाम सुधर्मा स्वामीको प्राप्त हुआ और सुधर्मासे जम्बू स्वामीको । जम्बू स्वामीके ६. रिपोर्ट १८८३-८४, पृ० १२४ । ३. भूतवली-पुष्पदन्तकृत पटख०, पु० १, पृ० ६५-६६ । गुणधरकृत क. पा०, भा० १, पृ०
८३-८७।