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चूर्णिसूत्र साहित्य • १८१ चूणिर्नोगे आ पाये है, कोई पद छूटा नहीं है। यह पहले बतलाया जा चुका है कि गुणधराचार्यके द्वारा निर्दिष्ट १५ अधिकारोस यतिवृपभके द्वारा निर्दिष्ट १५ अधिकागेमें भेद है । अस्तु, गाथा नम्बर १५ ते २० तक पर भी कोई चूणिसून नही है । गाथा २१ मे कमायणाहुडमे चचित विषयका आरम्भ होता है और मवसे प्रथग हगी गाथाका उत्थानिकासूत्र पाया जाता है । 'एत्तो सुत्तममीदारो' 'इसके अनन्तर गायासूनका रामवतार' होता है । 'समवतार' शब्द कितना आदरसूचक है यह बतलानेको आवश्यकता नहीं है। आगे किसी सूनकी उत्यानिकामे इस शब्दका व्यवहार मेरी दृष्टिरो नही गुजरा।
चूणिराप्रकारने उपक्रमके पांच भेद बतलाये है-आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार । किन्तु मनुयोगहारसनम' उपक्रमके छ भेद भी बतलाये है उनमें उक्त पांच भेदोके सिवाय एक भेद समवतार भी है । चूर्णिसूत्रकारने यद्यपि समवतारको उपक्रमके भेदोमे नहीं गिना, फिर भी उन्होंने 'एतो सुत्तममोदारो' के द्वारा शायद उसी छठे भेदका उल्लेख किया है । अस्तु, गाथाके समवतारके पश्चात् चूणिसूम में कहा है कि इस गाथाके पूर्वार्धकी "विहासा' (विभापा) करना चाहिये। जयघवलाकारने सूत्रके द्वारा सूचित अर्थका विशेप कथन करनेको विभापा कहा है । आव०नि०४ के कर्ताने अनुयोग, निमोग, भापा, विभापा और वातिकको एकार्यक वतलाते हुए उनमें उत्तरोत्तर विशेप कथनकी अपेक्षा विशेप बतलाया है। विशे० भाष्यके' कर्ताने भी विविध प्रकारसे अथवा विशिष्ट प्रकारसे कथन करनेको विभापा कहा है।
जयधवलाकारने विभापाके दो भेद किये है-एक प्ररूपणाविभापा और एक
१. 'अहवा उवक्कमे छन्विरे पण्णत्ते । त जहा-आणुपुची १, नाम २, पमाण
३, वत्तव्यया ४, अत्याटियारे ५, समोआरे ६।-अनु० द्वा०, सू०७० । . पढिस्से गाहाए पुरिमस्स विहामा कायन्वा-क. पा. भा० १, पृ० ३६५ । ३ 'सुत्तण सृचिदत्यस्स विमेसिऊण भामा विभासाविवरण ति वुत्त होदि ।'
ज. प. प्रे० का० पृ. ३११९ । ४ अणुओगो य निओगो भाम विभामाय वतिय चेव । एए अणुओगस्म उ नामा एगठिया
पच ॥१०८।। कठे पोत्ये चित्ते सिरिधरिए वोंड देसिएचेव । भासग विभामए वा वित्ति
करणे य आहरणा ॥१३॥ आ० नि. ५ विविहा विसेसओ वा होड विभासा दुगादि पज्जाया। जह सामइय समओ सामाओ
वा समाओ वा ॥१४२१॥ विशे० भा० ६ विहामा दुविहा होदि-परूवणाविहासा सुत्तविहासा चेदि ।' तत्थ परूवणाविहासा णाम
सुत्तपदाणि अणुच्चारिय सुत्तसृचिदासेसत्यस्स वित्थरपरूवणा। सुत्तविहासा णाम गाहामुत्ताणमवयवत्यपरामरसमुहेण सुत्तफासो-ज. ध० प्र० का० ।