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चूर्णिसूत्र साहित्य १७१
अर्थात् जिसकी शब्द रचना सक्षिप्त हो और जिसमें सूत्रगत विशेष अर्थोंका सग्रह किया गया हो, ऐसे सूत्रोके विवरणको वृत्ति सूत्र कहते है ।
चूर्णि सूत्र के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार के साहित्य में वृत्ति रूप संक्षिप्त सूत्र लिखे जाने पर भी अर्थ बहुल पदोका समावेश किया गया जिससे चूण सूत्र में पर्याप्त प्रमेयका समावेश हुआ है । यदि इन चूर्णि सूत्रोको चूर्णि पदो का समानार्थक मान लिया जाय, तो चूर्णिपदकी व्याख्यामें समाहित सभी लक्षण इन सूत्रोमें घटित होते हैं । हम यहाँ चूर्णिपदका लक्षण प्रस्तुत करते हैं । अत्थबहुल महत्य हेउ-निवाओवसग्गगम्भीर | बहुपायमवोच्छिन्नं गम-णयसुद्ध त चुण्णपय ॥
अर्थात् अर्थवहुल, महान अर्थका धारक या प्रतिपादक, हेतु निपात और उपसर्गसे युक्त गम्भीर, अनेक पद समन्वित और अव्यवच्छिन्न चूर्णिपद कहलाते हैं। आशय यह है कि जिनमें वस्तुका स्वरूप धारा प्रवाहसे कहा गया हो तथा जो अनेक प्रकारके जाननेके उपाय और नयोसे शुद्ध हो, उन्हें चौर्ण अथवा चूर्णि सम्वन्धीपद कहते है |
चूर्णिपदका यह लक्षण चूर्णि सूत्रोमें घटित होता है । अत यह अनुमान सहज है कि 'वृत्ति' और 'चूर्णि' एकार्थक है । आचार्य यतिवृषभने 'कसायपाहुड' के गाथा- सूत्रोपर वृत्यात्मक ऐसे सूत्र लिखें, जो बीजपदोके विश्लेषणके साथ प्रसगगत नये तथ्योके भी सूचक है । अतएव चूर्णि सूत्र सूत्रात्मक शैलीमें रचित बीजपद विवृत्यात्मक ऐसा साहित्य है, जिसमें शब्द अल्प और अर्थवहुल पाया जाता है । यथार्थत चूर्णिसूत्रकार गाथा - सूत्रोके बीजपदोका विश्लेषण कई सूत्रोमें भी करते है । बीजपदोमें अन्तर्निहित अर्थका विश्लेषण जब तक प्रकट नही हो जाता, तब तक वे सक्षिप्त रूपमें सूत्रोका प्रणयन करते हैं । अपने इस कथनकी पुष्टिके हेतु "पेज्जदोसविहत्ति अत्याहियारा" की दूसरी गाथा बाईसवी सख्यक ली जा सकती है। चूर्णि सूत्रकारने इस गाथाके प्रत्येक पदको वीज मानकर प्रकृतिविभक्तिका १२९ सूत्रोमें, स्थिति विभक्तिका ४०७ सूत्रोंमें, अनुमाग विभक्तिका १८९ सूत्रोमें, प्रदेश विभक्तिका २९२ सूत्रोमें, झीणाझीणका १४२ सूत्रोमें ओर स्थित्यन्तिकका १०६ सूत्रोमें वर्णन किया है । इस वर्णन से यह ध्वनित होता है कि चूर्णिसूत्र साहित्य वीजपदोका व्याख्यात्मक तो है ही, ही उसमें ऐसे भी अनेक पद प्रयुक्त है, जिनकी व्याख्या या वर्णन जाननेके लिये सकेत किया गया है । अणुचितिऊण णेदव्व (सूत्र १९२, गाथा ६२), गेहियव्व (सूत्र १५५, गाथा १२३), दट्ठव्व (सूत्र ३३५, गाथा १२३), साहेयव्व (सूत्र ८५ १ अभिधान राजेन्द्र 'चुण्णपद' |
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