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१६८ : जैनसाहित्यका इतिहास
भुजगार बन्ध इस प्रकरणमें भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यबन्धोका कथन है । पिछले समयकी अपेक्षा वर्तमानमें अधिक प्रदेशोका बन्ध करना भुजगार बन्ध है, कम प्रदेशोका बन्ध करना अल्पतरबन्ध है, पिछले समयमें जितना प्रदेश बन्ध किया था वर्तमान समयमें भी उतना ही प्रदेशबन्ध होना अवस्थितबन्ध है, और बन्ध न करके बन्ध करना अवक्तव्यबन्ध है । इन बन्धोका कथन तेरह अनुयोगोके द्वारा किया गया है--समुत्कीर्तना, स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोकी अपेक्षा भगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर भाव और अल्पवहुत्व । ताडपत्रके नष्ट हो जानेसे इस प्रकरणका कुछ भाग लुप्त हो गया है।
यहाँ भी मूल प्रकृतियोमें ओघसे अवस्थित पदके कालका कथन करते हुए पवाइज्जत तथा अपवाइज्जत उपदेशका निर्देश किया है।
पदनिक्षेप उक्त भुजगार अल्पतर आदि पद उत्कृष्ट भी होते है और जघन्य भी होते है । अत इस प्रकरणमें भुजगारके उत्कृष्ट वृद्धि और जघन्य वृद्धि ये दो भेद करके अल्पतरके उत्कृष्ट हानि और जघन्य हानि ये दो भेद करके तथा अवस्थित पदके उत्कृष्ट अवस्थान और जघन्य अवस्थान ये दो भेद करके कथन किया गया है । अत पदनिक्षेपके समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारोमेसे प्रत्येकके उत्कृष्ट और जघन्य ये दो भेद करके कथन किया है । तदनुसार उत्कृष्ट समुत्कीर्तना, उत्कृष्ट स्वामित्व और उत्कृष्ट अल्पबहुत्वमें ओघ और आदेशसे मूल और उत्तर प्रकृतियोकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थानका कथन है । तथा जघन्य समुत्कीर्तना, जघन्य स्वामित्व और जघन्य अल्पबहुत्वमें ओघ और आदेशसे मूल और उत्तर प्रकृतियोकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानका कथन है।
इस प्रकरणका भी ताडपत्र नष्ट हो जानेसे कितना ही अश लुप्त हो । गया है।
वृद्धि वृद्धि पदसे यहाँ वृद्धि, हानि, अवस्थित और अवक्तव्य इन चारोका ग्रहण होता है। इन चारोके अवान्तर भेद बारह है-अनन्त भाग वृद्धि, अनन्तभाग हानि, असख्यातभागवृद्धि, असख्यातभागहानि, संख्यातभागवृद्धि, सख्यातभागहानि संख्यातगुणवृद्धि, सख्यातगुणहानि, असख्यातगुणवृद्धि, असख्यातगुणहानि, अवस्थित और अवक्तव्य । यहाँ इन पदोकी अपेक्षा समुत्कीर्तना आदि तेरह अनुयोगोका ओघ