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महाबध १५७ संख्णतगुणा है । असाताके बन्धकका उत्कृष्टकाल सख्यातगुणा है । इत्यादि । यह स्वस्थानकालअल्पबहुत्वका उदाहरण है।
परस्थानकालअल्पबहुत्वमें परिवर्तमान प्रकृतियोका परस्थानमे अल्पबहुत्वका कथन किया है । ऐसी परिवर्तमान प्रकृतियाँ यहाँ २१ ली है-४ गति, २ गोत्र, २ वेदनीय, ४ आयु, हास्य-रतिका युगल और यश कीर्ति-अयश कीर्तिका युगल । इन्हीके अल्पबहुत्वका विवेचन है ।
इस प्रकार उक्त अनुयोगोके द्वारा प्रकृतिवन्धका कथन ओघसे और आदेशसे किया गया है।
बन्धस्वामित्वविचयमें तो गुणस्थानो और मार्गणाओमें कर्मप्रकृतियोंके बन्धके केवल स्वामियोका ही कथन था। यहाँ उनके बन्धको और अवन्धकोके काल क्षेत्र, अन्तर आदि अनुयोगद्वारोका कथन किया गया है।
२ स्थितिबन्धाधिकार स्थितिबन्धके मुख्य अधिकार दो है-मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध और उत्तरप्रकृतिस्थितिवन्ध । मूलप्रकृतिस्थितिबन्धके मुख्य अधिकार चार है-स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आबाधाकाण्डकप्ररूपणा और अल्पबहुत्वप्ररूपणा।
प्रत्येक कर्मके जघन्यस्थितिबन्धस्थानसे लेकर उत्कृष्टस्थितिवन्धस्थान तकके समस्त विकल्पोको स्थितिबन्धस्थान कहते है । समस्त ससारी जीव चौदह जीवसमासोमें विभक्त है । इनमेंसे एक-एक जीवसमासमें अलग-अलग कितने स्थितिविकल्प होते है, स्थितिबन्धके कारणभूत सक्लेशस्थान और विशुद्धिस्थान कितने है, और सबसे जघन्य स्थितिबन्धसे लेकर उत्तरोत्तर किसके कितना स्थितिवन्ध होता है, अल्पबहुत्वकी प्रक्रिया द्वारा इन तीन बातोका कथन स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणामें किया गया है।
एक समयमें बंधे हुए कर्मोंके निषेकोका उस समय प्राप्त स्थितिमें जिस क्रमसे निक्षेप होता है उसे निषेकरचना कहते है। इसका कथन करनेवाली प्ररूपणाको निषेकप्ररूपणा कहते है। निषेकप्ररूपणाका कथन दो अनुयोगोके द्वारा किया गया है-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । अनन्तरोपनिधाके द्वारा बतलाया है कि आयुकर्मके सिवाय शेष सात कर्मोका जितना स्थितिबन्ध होता है उसमेंसे आबाधाकालको कम करके जो स्थिति शेष रहती है उसके प्रथम समयमें सबसे अधिक कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते है, और उसके आगे द्वितीयादि समयोमें क्रमसे उत्तरोत्तर एक-एक चयहीन कर्मपरमाणुओका निक्षेप होता है। इस प्रकार प्रति समयमें जिस कर्मके जितने परमाणुओका बन्ध होता है उनका उक्त प्रकारसे